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(२८) उसके भागे षटखण्डागम धवनविदांत के सूत्र १६ से लेकर सत्र १०० तक काययोग भोर मिश्र काययोगों के भेद मोर ननमें सम्भव गुणस्थानों का वर्णन है। जो कि पुद्गल विपाको नामा नामकर्म के उदय से मन वचन काय वर्गणामों में से किसी एक वर्गणा के अवलम्बन से कम नोकर्म खींचने के लिये ओ मात्मप्रदेशों का हलन चलन होता है वो योग है जैसा कि पबला में कहा है। वह हलन चलन भावोर में पशक्य है। काययोग और मिश्र काययोग के सम्बन्ध सेहमी सूत्रों में वह पर्याप्तियों का भी वर्णन है जो द्रव्यवेद में ही घटित है। भाववेद में उनका घटित होना शक्य नहीं है। इससे स्पष्ट रूप से सभी समझ लगे कियां सूत्र द्रव्य श्री केही गुणस्थानों का विधायक है। वह भाववेद का सर्वथा विधायक नहीं है। अत: उस सूत्र में सञ्जद पद सर्वथा नहीं है यह नि:संशय एवं निश्चित सिद्धांत है। इसी मूल बात का निर्णय योग मागणा के सूत्रों का प्रमाण देकर और पर्यानियों के प्ररूपक सूत्रों का प्रमाण देकर हम स्पष्टता से कर देते हैं
कम्मइय कायजोगो विमाहगइ समावरणाणं केवलोणं वा. समुग्पावगदाणं। (सत्र ६० १४ १४६ धवन सिद्धांत)
पति-कार्माण काययोग विरगति में रहने वाले चारों गतियों के जीवों के होता है और केवली भगवान के समस्त अवस्था में होता है। इस विमागवि के कथन से स्पष्ट सिडी