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किसी पाचावरा पहान्ध मोहित बुद्धि पर खेद और पाश्चर्य होता है जहां कि दिगम्बर सिन आगम की रक्षा की कुछ भी परवा नहीं है। ऐसे विद्वानों का उत्तर देना भी व्यर्थ है जो प्रन्याशय के विरुद्ध निराधार, उल्टा सीधा चाहे जैसा अपना मत ठोंकते हैं। हमारा मत तो यह है कि प्रत्येक विद्वान एवं विवेकी पुरुष को अपना रेश्य सरुवा बोर दृढ़ बनाना चाहिये. जिस बागम के माधार पर हमारी धार्मिक मर्यादाएँ एवं निदोष बचट्य सिद्धान्त सदा से बक्षुण्ण चने आ रहे हैं उस पागम में अपनी भाषांता मानमर्यादा एवं अपनी समझ सूझकेष्टि कोण से कभी कोई परिवर्तन करने की दुर्भावना नहीं करना चाहिये । मागम के एमक्षर का परिवर्तन (घटाना या बढ़ाना) भी महान् पाप। पागम के विचार में जन समुदाय एवं बहुमत ब भी कोई मूल्य नहीं है।
जिन दिनों चर्चासागर प्रन्थ को कुछ बन्धुषों द्वारा प्रमासपोषित किया गया था, उस समय हमें बहुत खेद हुमाया क्योंकि पर्चा सागर एक संग्रह प्रन्थ है, उस में गोम्मट सार, राबवार्तिक, मूलाधार पूजासार, भादि पुराण मादि शाकों के प्रमाय दिये गये हैं बताये सब अप्रमाण ठारते हैं, इसलिए समन समुश्य भीर बिरसमाज बहुमत को विस्त रेखबर भी हमने कोई विमाननी की, और उन महान शास्त्रों के सर बसससार" पर्चा सागर पर शामीय प्रमाण, इस नाम पएकदैन्ट लिसा बाबो बम्बई समाज द्वारा मुद्रित हो