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बदलने की बात भी कही जाने लगी है । परन्तु ये सब भीतरी खोज- शून्य एवं बम् शून्य भ्रामक बाते हैं। असम्भव कभी सम्भव नहीं हो सकता। गर्भ से पहले अनेक नामकमों का उदय शुरू हो जाता है। कहीं के अनुसार शरीर रचनभ्यं होती है।' द्रव्यवेद चलने की थियोनी सुनकर डारविन की वियोरी के समान ही उपस्थित विद्वानों को वहां बहुत हंसी बाई यो अस्तु । भाववेद संचारी भाव है उसे वे नहीं बदलने वाला बताते हैं जबकि नोकपाय कर्मदिय जनित वैभाविक भाव सदैव बदलता रहता है।
इसीप्रकार द्रव्यखी की मुक्ति की चर्चा अभी कुछ समय से ही बताई जाती है यह बात भी दिगम्बर जैनागम से सर्वथा बाधित है । कारण जब क द्रव्य पुरुष और द्रव्यखी मनादि से चले जाते हैं, द्रव्यस्त्रीक उत्तम संहनन नहीं होता है यह बात भी अनादि से ४ तब उसको मुक्ति का निषेध बनाइ-सिद्ध एवं सर्वश प्रतिपादित है ।
आगे पं० फू. चंद जी शास्त्री लिखते हैं कि "यदि कोई प्रश्न करे कि "जीवकांड से द्रव्यस्त्री की मुक्ति का निषेध बतायो वो आप क्या करेंगे ? बात यह है कि मूल प्रन्थों में भागवेद की अपेक्षा से ही विवेचन किया जाता है।"
इसके उत्तर में यह बात है कि गोम्मटसार एक ग्रन्थ है उसके दो भाग है। १- पूर्वभाग २- उत्तर भाग । जीवकांड और कर्मकांड ऐसे कोई दो ग्रन्थ नहीं है। द्रव्यश्री की मुक्ति का निषेध