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सिद्धांत इसी बात को पुष्ट करता है कि गत्यंतर का सम्यग्दृष्टि जीव अपने साय बीवे! का अपनी लाता है । इसनिये अपर्याप्ताला: नहीं होता है, वे प्रमाण देने हैं
मृसो, मणु तिये मणुपिणि भापनि पजते ।
मोनी जी के इस प्रमा. सेती यही बात सिद्र होती है किसा ही मरकर का सार में न जाता है । इसलिये प्राजागविकार के आयु बना ये चीर गुणवान में द्रव्यसी के एक पर्यातनाप ही प्राचार्य नेनिकन सिद्धांत चकी ने बताया है।
इस गाया की टोका में लिखा है कि 'तथापि योनिनदसंयंत पर्यावालाप एवं योनिमोनां पंचरगुपस्थानादुरगननासभात प्रितीयोपशमसम्यम्वं नास्ति।
(गो० जी० गाथा वही सोनी जी के दिये हुये प्रमाण की.१४ पृ१ ११५३ टीका)
टीकाकार लिम्बने हैं कि-मान्यादि तीन प्रकार के मनुष्यों केदह गुणस्नान होते हैं। पर वो भी योनिमती मनुष्य (स्यबी) के पसंयन में एक पयांशालापही होता है, तथा योनि. मनी पांचवे गुणस्थान से कार नहीं जातो इसजिये उसके हितो. योपशम सम्मान नहीं होता है। यह सब यजी काही विचार
है। इस बात का और भी खुलासा इसी बाजागविबर को .१२वी गाथा से हो जाता है। बा--
परिव जोणिशिको पुरषो सेसेवि पुरणोदु ।