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वे ऐसा कोई प्रमाण उपस्थित करें जिसे 'भावत्री वेद-विशिष्ट द्रव्य पुरुष को अपर्याप्त अवस्था में सम्पष्टिीव मरगर नही आत है। यह बात सिद्ध हो । ऐसा प्रमाण उन्होंने या दूसरे विद्वानों ने बाज तक एक भी नी बताया है जितने भी प्रमाण गोम्मट मार के वे प्रगट कर रहे है वे सब द्रध्यकी को अपर्याप्त समस्या में सायष्टि के नही होने के है हमने जो अर्थ किया। उसके लिये हम यहां प्रमाण भी देते हैं
त्य सयवेदो इत्थीवेदो एउमाथि दुग पुव्वत्त पुरण जोगग बदुसु हाणेसु जाणेजो।
(गो० २.० गा०१७ पृ०६५६) इसकी सांकृत टीका में लिया है-'बयत कायकमिभकारणयोगयोः श्रीविदो नास्ति, प्रयतस्य कीडवनुपः पुनः असंयतीदारिक-मिश्रयोगे प्रमत्ताहारकारच सोपंढवेवी नसा इति शासव्यम'। इस माथा और संस्कृत टीका से यह बात सर्वथा खुलासा हो जाती है कि चौथे गुए स्थान में क्रियिक मिझ और कार्माण योग में जीवेद का उदय नही। क्योंकि पसंयद मरकर की में या नहीं होता। चोर बयत के मौवारिक मिभ योग में तथा प्रमत्त के माहारक और बाहार मिश्र योग में की और नपुसक वेदों का उदय नहीं है। इस कथन से हमारायन स्पर हो जाता और सोनी जी का कथन मय से विस्त पड़ता है।
'मनुषणीनां भी भावनियां होती है। ऐसा जो सोनी जी जगह २ बवाते हैं सो ऐसा वोहम भी मानते हैं। मानुषी राम