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१०६ बल से जाना जाता है। इन सब बातों का परिपूर्ण एवं सपमाण समबान हम इसी ट्रक में पहले अच्छी तरह कर चुके हैं। यहां विष्ट-पेपण करना व्यर्थ है।
भाग निगाव वनय वेदाचे नादि चागोअहि' इस प्रमाग से बताया है कि द्रव्यत्रियों और नपुसको वालों के वस्त्रादि का त्याग नहीं है, उसके बिना संयम होता नहीं है प्रा. अर्थात से यह बात भागमांतरों से जानी जातो है कि छठे प्रादि मयत स्थानों में एक द्रव्य पुरुावेद हो । परन्तु मानी जी को रात समझ लेनी चाहिये । कि यहां पर अर्थापत्त और भागनांतर में जानने की कोई आवश्यकता नही है।
मी पागम में यात्रियों के संयतासयत तक ही गुणस्थान बताये गये हैं उनके सयत गुणस्थान नहीं है. इसीलिये तो वन त्याग का मभाव हेतु दिया गया है। इस स्फुट कथन में भागमांतर से जानने की क्या बात है. ? हां ६२ सूत्र में सनद पर जोड़ देने से ही प्रन्य विषयांम और भागमांतर से जानने आदि की अनेक मिध्यामंझटें और बस्नु वैयरीत्य पैदा हुये बिना नहीं रहेगा। तथा ६३३ मृत्र में सञ्जद पद की सत्ता स्वीकार कर लेने पर निकट भविष्य में ऐसा साहित्य प्रसार होगा जो श्वेतांबरों दिगम्बर के मौमिक भदों को मेटकर सिद्धांत-विघात किये बिना नहीं रहेगा इस बात को सोनी जी प्रभृति विद्वानों को ध्यान में नाना चाहिए। . बस १६ गत १६४६ के खण्डेलवान जैन हितेच्छ में छपे