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१० दोनों जगह ममान होना चाहिये, मोनो जी हमारी इस तर्कणा
प्राशङ्का का जो उत्ता दे वहीं उन्हें पाने समाधान के लिये समझना चाहिये । कपूर एक सा होने पर भी व्यक्तियों की छोटो बड़ी प्रवाया और उनके इरादे (पंशा) में भंद होने में भित्र २ धारामों के आधार पर कम याना सजा दी जाती है । एक सङ्गीन कोगदारी मुकदमें में छह माह की सजा और २००) २० जुर्माना करने का एक साथ संकण्ड जप का अधिकार होने पर भी इमने भी प्रनिटी में दा श्राराधियों को कन ज्यादा सजा स्वयं दी है और ऊपर कन्या पालय सं रह किये जाने पर भी हमारा लिया हुआ यि (पंजा) हाई काट से बहाल (मान्य) रहा। प्रतः पात्रतानुसार हा न्याय होता है। यदि सत्र एक सा न्याय मान लिया जाय तर ता 'अन्यर नारो चौपट राजा, टका सेर भानो टका सेर खाना बाना हाल हो जायगा। इजिये सोनी जी की बात का यही सन यान है कि जहां जैसा पात्र और विधान है वहां सा हो पाए करना चाहिय । हरब-वे सूत्रों में अपात पर्यात के समय से त्रियों के द्रव्य शरीर का हो ग्रहण होता है। अन्यत्र जांत्रियों के चौदह गुणस्थान बनाये गये हैं वहां कवल भावत्रियों का पक्षण होता है। वांबियोंक साथ पर्याप्ति प्रायाति का सम्बन्ध नहीं है। बस इसीलिये सर्वत्र इतुवाद सहित यथोषित न्यायका पूर्ण विधान है।
भागे सोनी जी ने बिना किसी प्रमाण के कहा है कि पटखरडागम में भाषदेदों को प्रधानता है म्यवेद तो भागमांतरों के