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जायगा इसलिये, हम उन सब सूत्रों को छोड़ देते हैं। परन्तु इतना समझ लेना चाहिये कि देवगति के सामान्य और विशेष कथन में जहां पर्याप्त भपयोति में सम्भव गुणस्थानों का सूत्रकार पोर धवलाकार ने कथन किया है वहां सर्वत्र विषहगति, कार्मण शरीर मरण, उनि माद के विवेचन से यह स्पष्ट कर दिया है कि वह सब कथन भी द्रव्य शरीर से हो सम्बन्ध रखता है। पाठकगण ! एव भावपक्षी विज्ञान चाहें तो सूत्र १५ से लेकर सूत्र १०० तक सात सूत्रों एवं उनको धवल टीका को मुद्रिन अन्य में पढ़ लेवें, उदाहरणार्थ एक सूत्र हम यहां देते हैं। सम्मामिच्छाइट्टिाणे णियमा पजत्ता।
(सूत्र ६६ पृष्ठ १६८ धवल सिद्धांत) अर्थ मुगम है। इसको धवला टोका में यह स्पष्ट किया गया है। कि कथं ? तेनगुणेन सह तेषां मग्णाभावान अपयांप्रकालेऽपि सम्यमिथ्यात्वगुणस्योत्पत्तेरभावान । इसका अर्थ यह है कि देव तीसरे गुण. स्थान में नियम सं पर्याप्त है, यह क्यों ? इमक उत्तर में कहते हैं कि तीतर गुणस्थान में मरण नहीं होता है। तथा अपर्याप्त काल में भी इस गुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती है. यहां पर सर्वत्र गुणस्थानों का कथन जन्म मरण और पर्याप्त द्रव्य शरीर के भाधार पर ही कहा गया है । इसके सिवा षटखएडागम के 14वें सूत्र को धवना में 'सनत्कुमारादुपरि न बियः समुत्पद्यन्त सौधर्मादाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादान वत्र सीणामभाव कथं तेषां देवा