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होता तो बहुन खोज के साथ संशोधन पूर्वक नकल की गई कागजकी प्रतियों में भी वह पद अवश्य पाया जाना परन्तु वहां वह नहीं है। पृज्य क्षुल्लक मूरिलिइ जी ने मूबिद्री जाकर सभी प्रतियां देवी हैं, उनका कहना है कि, मूल प्रति में तो 'सञ्जद' शब्द नहीं था उसके भनेक पत्र नष्ट हो चुके हैं, दूसरी प्रति में 'मञ्जद' के पहले 'ट' भी जुड़ा हुआ है, तीसरी प्रति में 'सञ्जद' शब्द पाया जाता है। इस प्रकार अशुद्ध एवं मत्र प्रानयों में 'सञ्जद' शब्द का उल्लेख नहीं मिलने में प्रन्थावार भी उसका भस्तित्व निर्णीत नहीं है। फिर यदि ताड़पत्र को किसी प्रति में वह मिलता भा? तो वह लेख की भूल सं लिखा गया है यहां मानना पड़ेगा, अन्यथा जो सूत्रों में द्रव्य प्रकरण बताया गया है
और साथ ही सूत्र में 'सञ्जद' पद मानने से अनेक सूत्रों में उपयुक्त दोष बताये हैं, वे सब उपस्थित होंगे और अंग सिद्धांत के एक देश ज्ञाता भाचार्य भूतबलि पुष्पदंत की कृति भी अधूरी एवं दुषित ठहरंगी जो कि उनके सिद्धांत पारङ्गत एवं प्रतल स्पर्शी शान समुद्र को देखत हुय असम्भव है। ताड़पत्र की प्रति में 'सञ्जद' पद के सद्भावके सम्बन्ध में प्रसङ्ग वश इतना लिखना ही हमने पयांत समझा है।
इस पागके सूत्रों में पर्याप्ति भपयाप्ति के सम्बन्धसे देवगति के गुणस्थानों का कथन है । वह कथन ७ सूत्रों में है । १००वें सूत्र में उसकी समाप्ति है। उन सब सूत्रों एवं उनकी धवला टीकाका उद्धरण देने तथा उन सबों का अर्थ करने से यह लेख बहुत बढ़