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मानुपूर्त का उदय नाहीं । नपुसक के नरक बिना तीन भानुपूर्वो का सदय नाही"
इस कथन से इस बात के समझ में कोई सन्देह किसी को भी नहीं हो सकता है कि यह सब कथन द्रव्यत्रो और द्रव्यनपुसक का है। बहुत ही पुष्ट एवं अकाट्य प्रमाण यह दिया गया कि चौथ गुणस्थान में पारों भानुपूर्वी का उदय त्रीवेदी के नी।। मानुपूर्वी का पय विग्रह गति में ही होता है। क्योंकि यह क्षेत्र विपाकी प्रकृति है। और सम्यग्दर्शन सहित जीव मरकर द्रव्यत्री पर्याय में जाता नहीं है प्रतः किसी भी पानुपूर्वी का उदय वहां नहीं होता है। परन्तु पहले नरक में, सम्पर्शन सहित मरकर जाता है अतः यहां नरकानुपूर्वो का तो उदय होता है शेष तीन भानुपूर्वी का उदय नहीं होता है। इस कथन सं स्पष्ट है कि भपर्याप्त भवस्था में जन्म मरण एवं भानुपूर्वी का अनुदय होने सं द्रव्यत्री का हो ग्रहण ऊपर को गाथा और टीका सं होता।
परन्तु ६२वें सूत्रको यदि भाव वेदका ही निरूपक माना जाता। तो वहां जन्म मरण एवं मानुपूर्वी अनुदय मादि का तो कोई सम्बन्ध नहीं। फिर भाववेद बी के अपर्याप्त अवस्था में बोया गुणस्थान होने में कोई बाधा नहीं है जहां द्रव्य वेद पुरुष हो और भाववेद तो हो वहां अपर्याप्त माथा में चौथा गुणस्थान नहीं होता ऐसा कोई प्रमाण हो तो उपस्थित करना चाहिये । गोम्मटसार के जितने भी प्रमाण--साणे थी वेद छिदी, मादि इस सो अपर्याप्त के प्रकरण में दिये जाते हैं वे गे सब ब्रम्पको