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दृष्टि देने से यह बात भने प्रभार निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि ६२ और ६३वे सूत्र द्रव्य बोके ही विधायक हैं। द्रव्य मनुष्य के साथ मात्र त्री को करना इन सूत्रों में नहों की जा सकती है।
बब ६३वां सूत्र यत्रो का ही विधान करता है उसमें 'सनद' पद का निवेश करना सिद्धांतसे विपरीती। बतः यह माटरूप से मिट हो चुका है कि वे सत्र में 'मम' पर का: सर्वथा अभाव है। वहां मंयत पर किसी प्रकार जोश नहीं जा समता है। यह बात सूत्रगत पदों से ही सिद्ध हो जाती है। तथा उसी के अनुरूप धवना टीका से भी वही बात सिद्ध होती है। उसका दिग्दर्शन धवना के प्रमाणों द्वारा हम यही माते हैं___ "हुए डावरियां खीषु सम्यग्दृश्यः त्रिोत्पयन्त इतिचेन, नोत्पयन्ते । कुतोवमीयते ? भस्मादेव पार्शत । अस्मादेवार्षात द्रव्यमाणा निवृत्तिः सिद्ध्येदिति चेत्र सवासस्वारपत्याख्यानगुखवितानां संयमानुपपत्तेः मावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इवित, न तासां भावसंयमोस्ति भावाऽसंयमाविनाभाविवसायपादानाम्यथानुपपत्तेः । कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेन भावात्रीविशिष्ट-मनुष्यगतो वत्सत्वाविरोधात । भाववेदो बादर
वाघोपर्यतीति न वत्र चतुर्दश गुणस्थानानां संभव इतिचेन्न पत्रस्व प्रापावाभावात् । गविस्तु प्रधाना न सा पाराविनस्पति देदवशेषखायां गतौ न तानि संभवन्तीति चेम विनष्टषि विशेषणे
पारेख वन्यपरेशमादपानमनुष्यगतो वत्सत्याविरोधात