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ईॉ अबरु विशाना) =
विविक्तं कलं निष्कलंक कविस्थम् ,
सुसेव्यं विपाकं विशंक द्यपारम् । विकालं विकायं विकाम विचक्रम् ,
सदा तोष्टवीमि स्फुटं सिद्धचक्रम् ॥ ४ ॥
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त्रिलोकातिशायिप्रभं विश्वरूपम् ,
गृहं तेजसा वीतवर्ण विरूपम् । सदा दृङ्मयं ध्येयरूपं विचक्रम् ,
सदा तोप्टवीमि स्फुटं सिद्धचक्रम् ॥५॥ अगम्यं मुनीनामपि सुप्रबोधम् ,
कृताहंकृतिक्रोधचिन्तानिरोधम् । अपारं जरामृत्युमुक्तं विचक्रम्,
सदा तोष्टवीमि स्फुटं सिद्धचक्रम् ॥ ६॥ अनंत विरामं विकारावमुक्तम् ,
विमुक्तस्फुरत्कामिनीरंगरक्तम् ।
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