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कहीं वंदना और कहीं बंदी बना लिया। भगवान् के मौन ने उनके सन्देह को पुष्ट कर दिया। यह घटना पूरे सन्निवेश में विजली की भांति फैल गई। वहां भगवान पार्श्व की परंपरा की दो साध्वियां रहती थीं । एक का नाम था विजया और दूसरी का नाम था प्रगल्भा। इस घटना की सूचना पाकर वे आरक्षि-केन्द्र में पहुंचीं। उन्होंने आरक्षिकों को भगवान् का परिचय दिया। भगवान् मुक्त हो गए।
यह नियति की कैसी विडंबना है कि भगवान् मुक्ति की साधना में रत हैं और कुछ लोग उन्हें बंदी बनाने में प्रवृत्त हैं।
७. लोहार्गला में भी भगवान् के साथ यही हुआ। उस राज्य के अपने पड़ोसी राज्य के साथ तनावपूर्ण सम्बन्ध चल रहे थे । वहां के अधिकारी आने-जाने वालों पर कड़ी निगरानी रखते थे। उन्हीं दिनों भगवान् महावीर और गोशालक वहां आ गए । प्रहरियों ने उनसे परिचय मांगा। उन्होंने वह दिया नहीं। उन्हें बंदी बनाकर राजा जितशत्रु के पास भेजा गया। नैमित्तिक उत्पल अस्थिकग्राम से वहां आया हुआ था। वह राज्य-सभा में उपस्थित था। वह भगवान् को बन्दी के रूप में देख स्तब्ध रह गया। वह भावावेश की मुद्रा में बोला, 'यह कैसा अन्याय !' राजा ने पूछा, 'उत्पल ! राज्य-अधिकारियों के कार्य में हस्तक्षेप करना भी क्या कोई निमित्तशास्त्र का विधान है ?'
'यह हस्तक्षेप नहीं है, महाराज ! यह अधिकारियों का अविवेक है।' 'यह क्या कह रहे हो, उत्पल ? आज तुम्हें क्या हो गया ?' 'कुछ नहीं हुआ, महाराज ! मेरा सिर लाज से झुक गया है।' 'क्यों?' 'क्या आप नहीं देख रहे हैं, आपके सामने कौन खड़े हैं ?' 'वंदी है, मैं देख रहा हूं।' 'ये बंदी नहीं हैं । ये मुक्ति के महान् साधक भगवान महावीर हैं।'
महावीर का नाम सुनते ही राजा सहम गया। वह जल्दी से उठा और उसने भगवान् के बन्धन खोल दिए और अपने अधिकारियों की भूल के लिए क्षमा मांगी।
भगवान् बंदी बनने के समय भी मौन थे और अब मुक्ति के समय भी मौन ।'
उनका चित्त मुक्ति का द्वार खोल चुका था, इसलिए वह शरीर के बंदी होने पर रोप का अनुभव नहीं कर रहा था और मुक्त हो जाने पर हर्ष को हिलोरें नहीं
१.साधना का छठा वर्ष । २. आवश्यकणि , पूर्व भाग, पृ० २६१-२६२ । ३. साधना का बाठयां वर्ष । ४. आवश्यकचूमि, पूर्वभाग, पृ० २६४!