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बंधन की मुक्ति : मुक्ति का अनुबंध व्याख्या इससे भिन्न है। शरीर वेचारा जड़ है। पहली बात-उसे कष्ट होगा ही कैसे ? दूसरी बात-उसे कष्ट देने का अर्थ ही क्या ? तीसरी बात-भगवान् का शरीर धर्म-यात्रा में बाधक नहीं था, फिर वे उसे कष्ट किसलिए देते ? मेरी व्याख्या यह है-भगवान् आत्मा में इतने लीन हो गए कि बाहरी अपेक्षाओं की पूर्ति का प्रश्न बहुत गौण हो गया और चेतना के जिस स्तर पर शारीरिक कष्टों की अनुभूति होती है, वह चेतना अपने स्थान से च्युत होकर चेतना के मुख्य स्रोत की ओर प्रवाहित हो गई। इसलिए वे साधनाकाल में शरीर के प्रति जागरूक नहीं रहे। तन्मूर्तियोग
भगवान् ध्यान के समय साधन और साध्य में समस्वरता स्थापित करते थे। उनकी भाषा में इसका नाम 'तन्मूर्ति' या 'भावक्रिया' है। यह अतीत की स्मृति
और भविष्य की कल्पना से बचकर केवल वर्तमान में रहने की क्रिया के साथ पूर्णरूपेण समंजस होने की प्रक्रिया है। वे इस ध्यान का प्रयोग चलने, खाने-पीने के समय भी करते थे। वे चलते समय केवल चलते ही थे-न कुछ चितन करते, न इधर-उधर झांकते और न कुछ बोलते। उनके शरीर और मन-दोनों परिपूर्ण एकता बनाए रखते।
भोजन की वेला में वे केवल खाते ही थे-न स्वाद की ओर ध्यान देते, न चिंतन करते और न वातचीत करते।
भगवान् आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होने पर आत्ममूर्ति हो जाते। वर्तमान क्रिया के प्रति सर्वात्मना समर्पित होकर ही कोई व्यक्ति तन्मूर्ति हो सकता है। भगवान् ने तन्मूर्ति होने के लिए चेतना की समग्र धारा को आत्मा की ओर प्रवाहित कर दिया। मन, विचार, अध्यवसाय, इन्द्रिय और भावना-ये सब एक ही दिशा में गतिशील हो गए।
पुरुषाकार आत्मा का ध्यान
आत्मा दृश्य नहीं है, फिर उसका ध्यान कैसे किया जाए? यह प्रश्न मादी उठता है, भगवान् के सामने भी उठा होगा। उन्होंने देखा, आत्मा समय में व्याप्त है। शरीर का एक भी अणु ऐसा नहीं है, जिसमें चेतना अनुप्रविष्ट पुरुप समग्रतः आत्ममय है, इसलिए भगवान् ने पुरुषाकार आत्मा कानि उन्होंने शरीर के हर अवयव में आत्मा का दर्शन किया। इस बार होने में बहुत सहायता मिली।
मन राग के रथ पर आरूढ़ होकर फैलता है। वैराग्यो केन्द्र-बिन्दु में स्थित हो जाता है। भगवान् वैराग्य अंटर, मन और अनुभूति के द्वारा मन की धारा को चैतन्य के महामिन्यु रक।