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________________ ७४ श्रंमण महावीर निकाला। उनका ध्येय था-आत्मा। उनका ध्यान था-आत्मा। उनका ध्याता थाआत्मा। उनका ध्यान था आत्मा के लिए। उनके सामने आदि से अंत तक आत्मा ही आत्मा था। तिल में तेल, दूध में घृत और अरणिकाष्ठ में जैसे अग्नि होती है, वैसे ही देह में आत्मा व्याप्त है। __ कोल्हू के द्वारा तिल और तेल को पृथक् किया जा सकता है। घर्पण के द्वारा अरणिकाष्ठ और अग्नि को पृथक् किया जा सकता है। वैसे ही भेद-विज्ञान के ध्यान द्वारा देह और आत्मा को पृथक् किया जा सकता है।। भगवान् महावीर ध्यानकाल में देह का व्युत्सर्ग और त्याग कर आत्मा को देखने का प्रयत्न करते थे। स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर के भीतर आत्मा है। भगवान् चेतना को स्थूल शरीर से हटाकर उसे सूक्ष्म शरीर में स्थापित करते। फिर वहां से हटाकर उसे आत्मा में विलीन कर देते। ___ आत्मा अर्मूत है, सूक्ष्मतम है, अदृश्य है। भगवान् उसे प्रज्ञा से ग्रहण करते। आत्मा चेतक है, शरीर चैत्य है । आत्मा द्रष्टा है, शरीर दृश्य है । आत्मा ज्ञाता है, शरीर ज्ञेय है। भगवान् इस चेतन, द्रष्टा और ज्ञाता स्वरूप की अनुभूति करतेकरते आत्मा तक पहुंच जाते । वे आत्मध्यान में चिंतन का निरोध नहीं करते । वे पहले देह और आत्मा के भेद-ज्ञान की भावना को सुदृढ़ कर लेते। उसके सुदृढ़ होने पर वे आत्मा के चिन्मय स्वरूप में तन्मय हो जाते । अशुद्ध भाव से अशुद्ध भाव की और शुद्ध भाव से शुद्ध भाव की सृष्टि होती है। इस सिद्धान्त के आधार पर भगवान् आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करते थे। उनका वह ध्यान धारावाही आत्म-चिंतन या आत्म-दर्शन के रूप में चलता था। भगवान् सर्दी से धूप में नहीं जाते; गर्मी से छाया में नहीं जाते; आंखें नहीं मलते; शरीर को नहीं खजलाते; वमन-विरेचन आदि का प्रयोग नहीं करते; चिकित्सा नहीं करते; मर्दन, तैल-मर्दन और स्नान नहीं करते। एक शब्द में वे शरीर की सार-सम्हाल नहीं करते। ऐसा क्यों ? कुछ विद्वानों ने इस चर्या की व्याख्या यह की है-'भगवान् ने शरीर को कष्ट देने के लिए यह सब किया।' मेरी १. उपयोग चैतन्य का परिणमन है । वह ज्ञान-स्वरूप है। क्रोध आदि भावकर्म, ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म और शरीर आदि नो-कर्म-ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणमन हैं, अचेतन हैं । उपयोग में क्रोध आदि नहीं है और क्रोध आदि में उपयोग नहीं है । इनमें पारमार्थिक आधार-आधेयभाव नहीं है । परमार्थतः इनमें अत्यन्त भेद है। इस भेद का बोध हो 'भेद-विज्ञान' है।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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