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बंधन की मुक्ति : मुक्ति का अनुबंध
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भगवान् स्वतंत्रता के विविध प्रयोग कर रहे थे। वे प्रकृति के वातावरण की परतंत्रता से भी मुक्त होना चाहते थे। सर्दी और गर्मी-दोनों सब पर अपना प्रभाव डालती हैं। भगवान इनके प्रभाव-क्षेत्र में रहना नहीं चाहते थे।
शिशिर का समय था। सर्दी बहुत तेज पड़ रही थी। वर्फीली हवा चल रही थी। कुछ भिक्षु सर्दी से बचने के लिए अंगार-शकटिका के पास बैठे रहे । कुछ भिक्षु कंवलों और ऊनी वस्त्रों की याचना करने लगे। पार्श्वनाथ के शिष्य भी वातायनरहित मकानों की खोज में लग गए। उस प्रकंपित करने वाली सर्दी में भी भगवान् ने छप्पर में स्थित होकर ध्यान किया। प्रकृति उन पर प्रहार कर रही थी और वे प्रकृति के प्रहार को अस्वीकार कर रहे थे। इस द्वन्द्व में वे प्रकृति से पराजित नहीं हुए। भेद-विज्ञान का ध्यान
मकान पर दृष्टि आरोपित हुई तव लगा कि आकाश बंधा हुआ है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह मकान से बद्ध नहीं है।
जल में डूबे हुए कमलपन को देखा तब लगा कि वह जल से स्पृष्ट है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह जल से स्पृष्ट नहीं है।
घट, शराब, ढक्कन आदि को देखा तब लगा कि ये मिट्टी से भिन्न हैं। मिट्टी के स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वे मिट्टी से भिन्न नहीं हैं।
तरंगित समुद्र में ज्वार-भाटा देखा तव लगा कि वह अनियत है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अनियत नहीं है।
सोने को चिकने और पीले रूप में देखा तब लगा कि वह विशिष्ट है। उसके स्वभाव की भापा पढ़ी तब ज्ञात हआ कि वह अविशेष है।
अग्नि से उत्तप्त जल को देखा तव लगा कि वह उष्णता से संयुक्त है। उसके स्वभाव की भाषा पढी तब ज्ञात हआ कि वह उष्णता से संयुक्त नहीं है।
स्वभाव से भिन्न अनुभूति में लगा कि आत्मा वद्ध-स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेप और संयुक्त है । स्वभाव की भाषा पढ़ी तव ज्ञात हुआ कि वह अवद्ध-स्पृष्ट, अनन्य, ध्रुव, अविशेष और असंयुक्त है।
इस स्वभाव की अनुभूति ही आत्मा है। वह देह में स्थित होने पर भी उससे भिन्न है।
भगवान् महावीर स्वतंत्रता के साधक थे। वे सारी परम्पराओं से मुक्त होने की दिशा में प्रयाण कर चुके थे। फिर उन्हें अपने से भिन्न किसी परम सत्ता की परतन्त्रता कैसे मान्य होती ? उन्होंने परम सत्ता को अपने देह में ही खोज
१. आयारो, ६।२।१३-१६; आचारांगचूणि, १० ३१७; आचारांगति, पन २८०, २८१ ।