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बंधन की मुक्ति : मुक्ति का अनुबंध .
भगवान् की जीवन-घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति के प्रतिकूल चलना उनका सहज धर्म हो गया। हेमन्त ऋतु में भगवान् छाया में ध्यान करते। गर्मी में वे धूप में ध्यान करते। भगवान् के ये प्रयोग प्रकृति पर पुरुष की विजय के प्रतीक बन गए।
भगवान् श्रावस्ती से विहार कर हलेद्दुक गांव के बाहर पहुंचे। वहां हलेदुक नामक एक विशाल वृक्ष था। भगवान् उसके नीचे ध्यानमुद्रा में खड़े हो गए। एक सार्थवाह श्रावस्ती जा रहा था। उसने उस विशाल वृक्ष के पास पड़ाव डाला।
· सूर्य अस्त हो चुका था। रात के चरण आगे बढ़ रहे थे। अंधकार जैसे-जैसे गहरा हो रहा था, वैसे-वैसे सर्दी का प्रकोप बढ़ रहा था। भगवान् उस सर्दी में निर्वसन खड़े थे। वह वृक्ष ही छत, वही आंगन, वही मकान और वही वस्त्र-सब कुछ वही था । सार्थ के लोग संन्यासी नहीं थे। उनके पास संग्रह भी था-बिछौने, कंबलें, रजाइयां, और भी बहुत कुछ। फिर भी वे खुले आकाश में कांप रहे थे। उन्होंने सर्दी से बचने के लिए आग जलाई। वे रात भर उसका ताप लेते रहे। पिछली रात को वहां से चले । आग को वैसे ही छोड़ गए।
हवा तेज हो गई। आग कुछ आगे बढ़ी। गोशालक भगवान् के साथ थे। वे बोले, 'भंते ! आग इस ओर आ रही है। हम यहां से चलें। किसी दूसरे स्थान पर जाकर ठहर जाएं।' भगवान् ध्यान में खड़े ही रहे। आग बहुत निकट आ गई। गोशालक वहां से दूर चले गए। वृक्ष के नीचे बहुत घास नहीं थी। जो थी, वह सूखी नहीं थी। इसलिए वृक्ष के नीचे आते-आते आग का वेग कम हो गया। उसकी धीमी आंच में भगवान् के पैर झुलस गए।
१. साधना का पांचवां वर्ष । २. आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ० २८८ ।