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गंगा में नौका-विहार
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नाविक बोला, "भंते ! यह प्रश्न मेरा है। क्या आप मेरी नौका को उस पार ले चलेंगे?'
सिद्धदत्त का प्रश्न सुन भगवान् मौन हो गए। उनका मौन कह रहा था कि उस पार स्वयं को पहुंचना है । उसमें सहयोगी तुम भी हो सकते हो और मैं भी हो सकता हूं।
भगवान् नौका में बैठ गए । उसमें और अनेक यात्री थे। उनमें एक था नैमित्तिक । उसका नाम था खेमिल । नौका जैसे ही आगे बढ़ी, वैसे ही दायीं ओर उल्लू बोला । खेमिल ने कहा, 'यह बहुत बुरा शकुन है। मुझे भयंकर तूफान की आशंका हो रही है।' नैमित्तिक की बात सुन नौका के यात्री घबरा उठे। ___इधर नौका गंगा नदी के मध्य में पहुंची, उधर भयंकर तूफान आया। नदी का जल आकाश को चमने लगा। नौका डगमगा गई । उत्ताल तरंगों के थपेडों से भयाक्रांत यानी हर क्षण मौत की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान् उन प्रकंपित करने वाले क्षणों में भी निष्कंप बैठे थे। उनके मन में न जीने की आशंसा थी और न मौत का आतंक । जिसके मन में मौत के भय का तूफान नहीं होता, उसे कोई भी तूफान प्रकंपित नहीं कर पाता। __ तूफान आकस्मिक ढंग से ही आया और आकस्मिक ढंग से ही शान्त हो गया। यात्रियों के अशान्त मन अब शान्त हो गए। भगवान तूफान के क्षणों में भी शांत थे और अब भी शांत हैं। खेमिल ने कहा, 'इस तपस्वी ने हम सबको तूफान से बचा लिया।' यात्रियों के सिर उस तरुण तपस्वी के चरणों में झक गए। नाविक ने कहा, 'भंते ! आपने मेरी नैया पार लगा दी। मुझे विश्वास हो गया है कि मेरी जीवन-नैया भी पार पहुंच जाएगी।'
नौका तट पर लग गई। यात्री अपने-अपने गंतव्य की दिशा में चल पड़े। भगवान् थूणाक सन्निवेश की ओर प्रस्थान कर गए।
१. बावश्यकचुणि, पूर्व भाग, पृ० २८०, २१: