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गंगा में नौका-विहार
ऐसा कौन मनुष्य है जिसने प्रकृति के रंगमंच पर अभिनय किया हो और अपना पुराना परिधान न बदला हो। जहां बदलना ही सत्य है वहां नहीं बदलने का आग्रह असत्य हो जाता है।
भगवान् महावीर अहिंसा और आकिंचन्य की संतुलित साधना कर रहे थे । उनके पास न पैसा था और न वाहन । वे अकिंचन थे, इसलिए परिव्रजन कर रहे थे। वे अहिंसक और अकिंचन-दोनों थे, इसलिए पद-यात्रा कर रहे थे।
भगवान् श्वेतव्या से प्रस्थान कर सुरभिपुर जा रहे थे।' बीच में गंगा नदी आ गई । भगवान् ने देखा, दो तटों के बीच तेज जलधारा बह रही है, जैसे दो भावों के बीच चिंतन की तीव्र धारा बहती है। उनके पैर रुक गए।
ध्यान के लिए स्थिरता जरूरी है। स्थिरता के लिए एक स्थान में रहना जरूरी है। किन्तु अकिंचन के लिए अनिकेत होना जरूरी है और अनिकेत के लिए परिव्रजन जरूरी है। इस प्राप्त आवश्यक धर्म का पालन करने के लिए भगवान् नौका की प्रतीक्षा करने लगे।
सिद्ध दत्त एक कुशल नाविक था । वह जितना नौका-संचालन में कुशल था, उतना ही व्यवहार-कुशल था। यानी उसकी नौका पर बैठकर गंगा को पार करने में अपनी कुशल मानते थे।
सिद्ध दत्त यात्रियों को उस पार उतारकर फिर इस ओर आ गया। उसने देखा, तट पर एक दिव्य तपस्वी खड़ा है। उसका ध्यान उनके चरणों पर टिक गया । वह बोला, 'भगवन् ! आइए, इस नौका को पावन करिए।'
'क्या तुम मुझे उस पार ले चलोगे ?' भगवान् ने पूछा।
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१. माधना का दूसरा वर्ष।