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________________ अनुकूल उपसर्गों के अंचल में वे कलाकार की कोमल भावना और सधी हुई उंगलियों के उत्क्षेप-निक्षेप की अवहेलना कर आगे बढ़ गए। तो दूसरा कोण यह है कि भगवान् अन्तर्नाद से इतने तृप्त थे कि उन्हें वीणा-वादन की सरसता लुभा नहीं सकी। ५.श्रावस्ती की रंगशाला जनाकुल हो रही है । महाराज ने नाटक का आयोजन किया है। नट-मण्डली के कौशल की सर्वत्र चर्चा है । मण्डली के मुखिया ने भगवान् को देख लिया। उसने भगवान् से रंगशाला में आने का अनुरोध किया। भगवान् वहां जाने को सहमत नहीं हुए। नट ने कहा, 'क्या आप नाटक देखने को उत्सुक नहीं हैं ?' 'नहीं।' 'क्यों, क्या नाटक अच्छा नहीं लगता ?' 'अपनी-अपनी दृष्टि है।' 'क्या ललितकला के प्रति दृष्टि-भेद हो सकता है ?' 'ऐसा कुछ भी नहीं जिसके प्रति दृष्टि-भेद न हो सके।' 'यह अज्ञानी लोगों में हो सकता है, पर आप तो ज्ञानी हैं।' 'ज्ञानी सत्य की खोज में लगा रहता है। वह विश्व के कण-कण में अभिनय का अनुभव करता है । वह अणु-अणु में प्रकम्पन और गतिशीलता का अनुभव करता है। उसकी रसमयता इतनी व्याप्त हो जाती है कि उसके लिए नीरस जैसा कुछ रहता ही नहीं। अन्य सब शास्त्रों को जानने वाला क्लेश का अनुभव करता है । अध्यात्म को जानने वाला रस का अनुभव करता है। गधा चंदन का भार ढोता है और भाग्यशाली मनुष्य उसकी सुरभि और शीतलता का उपभोग करता नट का सिर श्रद्धा से नत हो गया। वह प्रणाम कर रंगशाला में चला गया। १. आचारांगचूणि, पृ० ३०३ । २. बाचारांगचूणि, पृ० ३०३ ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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