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श्रमण महावीर बहुत ही आकर्षक लगते थे। उनकी आंखें नीलकमल के समान विकस्वर थीं। उनके रूप-वैभव को देख अनेक रूपसियां प्रमत्त हो जातीं। एक बार रात के समय भगवान् के पास तीन रूपसियां आईं। एक बोली, 'कुमार ! तुम्हारी स्त्री कौन है-ब्राह्मणी है या क्षत्रियाणी ? वैश्य है या शूद्री ?'
'कोई नहीं है।' 'हम बन सकती हैं, तुम किसे पसन्द करते हो ?' 'किसी को भी नहीं।' 'अरे ! यह कैसा युवक जो हम जैसी रूपसियों को पसन्द नहीं करता ?'
दूसरी रूपसी आगे आकर कहने लगी-'तुम ठीक से देखो, यह पुरुष तो है न?' - तीसरी बोली-'मुझे लगता है, यह कोई नपुंसक है। यदि पुरुष होता तो हमारी उपेक्षा कैसे करता ?'
तीनों एक साथ कहने लगों-'कुमार ! अभी युवा हो। इस यौवन को अरण्य-पुरुष की भांति व्यर्थ ही क्यों गंवा रहे हो ? लगता है, तुम्हें प्रकृति से रूप का वरदान मिला, पर परिवार अनुकूल नहीं मिला। इसीलिए तुम उसे छोड़ अकेले घूम रहे हो। हम तुम्हारे लिए सर्वस्व का निछावर करने को तैयार हैं। फिर यह मोम का गोला आगी से क्यों नहीं पिघल रहा है ?'
तीनों के हाव-भाव, विलास और विभ्रम बढ़ गए। उन्होंने रति-प्रणय की समग्र चेष्टाएं कीं। पर भगवान् पर उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ।
भगवान् ऊर्ध्व, तिर्यक् और अधः-तीनों प्रकार का ध्यान करते थे। वे ऊर्ध्व ध्यान की साधना के द्वारा काम-वासना के रस को विलीन कर चुके थे। इसलिए उद्दीपन की सामग्री मिलने पर भी उनका काम जागृत नहीं हुआ। चलते-चलते उनके सामने दुस्तर महानदी आ गई। पर वे ध्यान की नौका द्वारा उसे सहज ही पार कर गए।
मिट्टी का गोला आग की आंच से प्रदीप्त होता है, किन्तु पिघलता नहीं।
४ श्यामाक वैशाली का प्रसिद्ध वीणावादक है । वह वीणा बजाने की तैयारी कर रहा है । भगवान् सिद्धार्थपुर से विहार कर वैशाली पहुंच रहे हैं। श्यामाक ने भगवान् को देखकर कहा, 'देवार्य ! मैं वीणा-वादन प्रारम्भ कर रहा हूं। आप इधर से सहज ही चले आए हैं। यह अच्छा हुआ। कुछ ठहरिए और मेरा वीणावादन सुनिए। मैं आपको और भी अनेक कलाएं दिखाना चाहता हूं।' भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। वे आगे बढ़ गए।
इस घटना की मीमांसा का एक कोण यह है कि भगवान् इतने नीरस हैं कि
१. आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ० २६६,३१० !