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________________ ४२ श्रमण महावीर प्रति उनके मन में वही प्रेम प्रवाहित था, जिसका प्रवाह हर प्राणी को आप्लावित किए हुए था।' 'लम्बा प्रयास और कष्टपूर्ण यात्रा-इस स्थिति में भगवान को कभी-कभी सिन्नता का अनुभव हुआ होगा?' 'कभी नहीं । उनकी मुद्रा निरंतर प्रसन्न रहती थी।' 'क्या प्रगन्नता का हेतु परिस्थिति नहीं है ?' 'यह मैं कैसे कहूं कि नहीं है और यह भी कैसे कहूं कि वही है । जो प्रसन्नता अनुकूल परिस्थिति से प्राप्त होती है, वह प्रतिकूल परिस्थिति से ध्वस्त हो जाती है। किन्तु भावना के बल से प्राप्त प्रसन्नता परिस्थिति के वात्याचक्र से प्रताड़ित नहीं होती।' ते ! भगवान् ने इतने कष्ट कैसे सहे ?' 'एक आदमी समुद्र में तैर रहा था। दूसरा तट पर खड़ा था। तैराक ने डुबकी लगाई । तट पर खड़े आदमी ने सोचा-तैराक इतना जल भार कैसे सहता है ? वह नहीं जानता था कि मुक्त जल का भार नहीं लगता । जल-भरा घट सिर पर रखने पर भार की अनुभूति होती है। यह बन्धन की अनुभूति है। शरीर के घट में बंधी हुई चेतना को कष्ट का अनुभव होता है। ध्यान-काल में वह समुद्र-जल की भांति बंधन-मुक्त हो जाती है । फिर शरीर पर जो कुछ बीतता है, उसका अनुभव नहीं होता। ध्यान के तट पर खड़े होकर तुम सोचते हो कि भगवान् ने इतने कष्ट कैसे सहे ?' इस समाधान ने मुझे यथार्थ के जगत् में पहुंचा दिया। अब मेरे कानों में ध्यान-कोष्ठ की महिमा का वह स्वर गूंजने लगा प्रलय पवन संवलित शीत भी, जहां चंक्रमण नहीं कर पाता। प्रखरपवन प्रेरित ज्वालाकुल, प्रज्वल हुतवह नहीं सताता। पूर्णलोकचारी कोलाहल, जहां नहीं वाधा . पहुंचाता। ध्यानकोष्ठ की उस संरक्षित, वेदी का हूं मैं उद्गाता। इस स्वर की हजारों प्रतिध्वनियों में मेरे सब प्रश्न विलीन हो गए।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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