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वंदना
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१३. तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदया:, . पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पञ्च व्रतानीत्यपि ।। चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दृष्टं परैः, आचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयम् ॥' -तीन गुप्तियां-मन की गुप्ति, वचन की गुप्ति और काया की गुप्ति, पांच समितियां-गमन की समिति, भाषा की समिति, आहार की समिति, उपकरण की समिति और उत्सर्ग की समिति, पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इस तेरह प्रकार के चारित्न-धर्म का, जो पूर्ववर्ती तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित नहीं था, प्रतिपादन किया, उस महावीर को हम नमस्कार करते हैं।
१४. देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगद् दुग्धाम्बुराशाविव,
ज्ञानज्योतिषि च स्फुटत्यतितरां ओंभूर्भुवः स्वस्त्रयी। शब्दज्योतिपि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासत्यमी, स श्रीमानमराचितो जिनपतिज्योतिस्त्रयायास्तु नः ॥ -क्षीर समुद्र में मज्जन की भांति जिसकी देहज्योति में जगत् मज्जन करता है, जिसकी ज्ञानज्योति में त्रिलोकी स्फूत होती है, दर्पण में प्रतिविम्व की भांति जिसकी शब्दज्योति में पदार्थ प्रतिभापित होते हैं वह देवाचित महावीर हमें तीनों ज्योतियों की उपलब्धि का मार्गदर्शन दे ।
१५. पन्नगे च सुरेन्द्रे च, कौशिके पादसंस्पृशि ।
निविशेषमनस्काय, श्रीवीरस्वामिने नमः ।।' - इन्द्र चरणों में नमस्कार कर रहा था और चंडकौशिक नाग पैर को डस रहा था। उन दोनों के प्रति जिसका मन समान था उस महावीर को मैं नमस्कार करता हूं।
१ पारित भक्ति, श्लोक ७ । वंदनाफार-बाचार्य पूज्यपाद । २. तत्वानुशासन प्रशस्ति श्ताक २५६ । वंदनाकार-आचार्य रामसेन । ३ गोगशास्त्र १/२ । वंदनाकार-नाचार्य हेमचन्द्र ।