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________________ श्रमण महावीर ८. कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा। एत्ताणि चत्ता अरहा महेसी, ण कुबई पाव ण कारवेइ॥' -भगवान् क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों अध्यात्म दोषों को नष्ट कर अर्हत हो चुके थे । वे पाप न करते थे और न करवाते थे। निक देवपुत्र भगवान् महावीर का उपासक था। उसने भगवान बुद्ध के सामने भगवान महावीर की स्तुति में यह गाथा कही ९. जेगुच्छी निपको भिक्खु, चातुयाम सुसंवुतो। दिढ सुतं च आचिक्खें, न हि नून किब्बिसी सिया॥' पापों से घृणा करने वाले, चतुर् भिक्षु, चारों यामों में सुसंवृत रहने वाले, देखे-सुने को कहते हुए, उनमें भला क्या पाप हो सकता है ? १०. जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरु जगाणंदो। जगणाहो जगबंधू, जयइ जगपियामहो भगवं ।। -जगत् की जीव योनियों को जानने वाले, जगद्गुरु, जगत् को आनन्द देने वाले, जगन्नाथ, जगबन्धु और जगत् पितामह भगवान् महावीर की जय हो। ११. जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो॥ -श्रुत के मूलस्रोत, चरम तीर्थंकर, लोकगुरु महात्मा महावीर की जय हो। १२. सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिवि दीसइ, वियसियसयवत्तगभगउरो वीरो॥ —जिसके केवलज्ञान रूपी उज्ज्वल दर्पण में लोक और अलोक प्रतिविम्ब की भांति दीख रहे हैं, जो विकसित कमल-गर्भ के समान उज्ज्वल और तप्त स्वर्ण के समान पीत वर्ण है, उस भगवान् महावीर की जय हो। १. सूयगडो : १।६।२६ । २ संयक्त निकाय, भाग १, १० ६५ । ३. नंदी, गाया १ । वंदनाकार-देववाचक । ४. नंदी, गाया २ । वंदनाकार-देववाचक । ५. जयघवला, ३ : मंगलाचरण । वंदनाकार-आचार्य वीरसेन । .
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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