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श्रमण महावीर
१६. निशि दीपोम्बुधौ द्वीपं, मरी शाखी हिमे शिखी। कली दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजःकणः ॥
-रात्रि में भटकते व्यक्ति को दीप, समुद्र में डूबते व्यक्ति को द्वीप, जेठ की दुपहरी में मरु में धूप से संतप्त व्यक्ति को वृक्ष और हिम में ठिठुरते व्यक्ति को अग्नि की भांति तुम्हारे चरण-कमल का रजकण इस कलिकाल में प्राप्त हुआ है।
१७. युगान्तरेषु भ्रान्तोस्मि, त्वद्दर्शनविनाकृतः। नमोस्तु कलये यत्र, त्वदर्शनमजायत ।'
-प्रभो ! तुम्हारा दर्शन प्राप्त नहीं हुआ तब मैं युगों तक भटकता रहा। इस कलिकाल को मेरा नमस्कार है। इसी में मुझे तुम्हारा दर्शन प्राप्त हुआ है।
१८. इयं विरुद्धं भगवन् ! , तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवत्तिता॥
-~भगवान् तुम्हारे जीवन में दो विरुद्ध बातें मिलती हैं- उत्कृष्ट निर्ग्रन्थता और उत्कृष्ट चक्रवत्तित्व ।
१९. शमोद्भुतोद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाद्भुता। सर्वाद्भुतनिधीशाय, तुभ्यं भगवते नमः ।। -प्रभो ! तुम्हारी शान्ति अद्भुत है, अद्भुत है तुम्हारा रूप । सब जीवों के प्रति तुम्हारी कृपा अद्भुत है। तुम सब अद्भुतों की निधि के ईश हो। तुम्हें नमस्कार हो।
२०. अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः ।
अनभ्यथितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धवान्धवः ।।" -~-भगवन् ! तुम अनामंत्रित सहायक हो, अकारण वत्सल हो, अभ्यर्थना न करने पर भी हितकर हो, सम्बन्ध न होने पर भी बन्धु हो।
१. वीतरागस्तव ६/६ । २. वीतरागस्तव, ६७ । ३. वीतरागस्तव, १०१६ । ४. वीतरागस्तव, १०८। ५. वीतरागस्तव १३।१।