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________________ २८४ श्रमण महावीर ९. समत्व या प्रेम ३८. पुढवि च आउकायं, तेउकायं च वाउकायं च। पणगाइं बीयहरियाई, तसकायं च सव्वसो णच्चा ॥ एयाई संति पडिलेहे, चित्तमंताई से अभिण्णाय । परिवज्जिया ण विहरित्था, इति संखाए से महावीरे॥' -भगवान् पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु, पनक , बीज, हरियाली और नसइन सबको चेतन-युक्त जानकर इन्हें किसी प्रकार क्लान्त नहीं करते थे। ३१. अविसाहिए दुवे वासे, सीतोदं अभोच्चा णिक्खंते।' -~भगवान् गृहस्थ जीवन के अंतिम दो वर्षों में सजीव जल नहीं पीते थे। उनके अन्तःकरण में करुणा या प्रेम का स्रोत प्रवाहित होने लग गया था। १०. अध्यात्म ४०. गच्छइ णायपुत्ते असरणाए। -भगवान् कष्टों से बचने के लिए किसी की शरण में नहीं जाते थे। समय-समय पर उन्हें मनुष्य, तिर्यच आदि कष्ट देते । कुछ व्यक्ति उन्हें कष्ट से बचाने के लिए अपनी सेवाएं समर्पित करने का अनुरोध करते। पर भगवान् ऐसे हर अनुरोध को ठुकरा देते । उनका मत था कि किसी की शरण में रहकर अपने आपको नहीं पाया जा सकता। अध्यात्म दूसरों की शरण में जाने की स्वीकृति नहीं देता। अध्यात्म का पहला लक्षण है अपने आप में शरण की खोज । ४१. एगत्तगए पिहियच्चे। - भगवान् अकेले थे। उनका शरीर ढंका हुआ था। भगवान् गृहस्थ जीवन में भी अकेले रहने का अभ्यास कर चुके थे। अध्यात्म सबके बीच रहने पर भी अपने आपको अकेला अनुभव करने की दृष्टि, मति और धृति देता है। अध्यात्म का दूसरा लक्षण है-अकेलापन । अध्यात्म का १. आयारो: ।।१।१२,१३ । २. आयारो : ६११ । ३. मायारो : ६।१।१०। ४. गवारो : ६।१११ ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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