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________________ संहयात्रा : सहयात्री २५७ श्रेणिक ने अभयकुमार से कहा-'यह वही व्यक्ति है, जिसे रोहिणेय चोर समझ कर हमारे आरक्षियों ने बंदी बनाया था । वह धर्मात्मा प्रतीत हो रहा था। लगता है कि हमारे प्रशासन ने इसे संदेहवश तिरस्कृत किया है।' सम्राट् ने अपनी बात पूरी नहीं की, इतने में उस व्यक्ति का परिचय पाकर सारी परिषद् स्तब्ध रह गई । उसने कहा-'मेरा नाम रोहिणेय है। चोरी मेरा कुलधर्म है। मैंने राजगृह को आतंकित किया है । लाखों-करोड़ों की संपदा चुराई है । मगध की सारी शक्ति मेरे पीछे लग गई पर मुझे नहीं पकड़ सकी। आज भगवान् ने मुझे पकड़ लिया। मैं हिंसा की पकड़ में नहीं आया किन्तु अहिंसा की पकड़ में आ गया।' रोहिणेय ने श्रेणिक से कहा-'महाराज ! महामात्य को मेरे साथ भेजें । मैं चुराया हुआ धन उन्हें सौंप दूंगा। मुझे विश्वास है कि वह उनके स्वामियों को लौटा दिया जाएगा। महाराज ! आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?' 'तुम अपने बारे में क्या सोचते हो, पहले यह बताओ.-' सम्राट् ने कहा। रोहिणेय ने सहज मुद्रा में कहा-'मैं भगवान् के पास दीक्षित होने का निर्णय कर चुका हूं।' 'साधुवाद, साधुवाद'-श्रेणिक का स्वर हज़ारों कंठों से एक साथ गूंज उठा। भय पर अभय की, संदेह पर विश्वास की, हिंसा पर अहिंसा की विजय हो गई। राजगृह ने सुख की सांस ली। राजगृह की जनता को अपना धन मिला और रोहिणेय को अपना धन मिला। दोनों की दिशाएं अपनी-अपनी समृद्धि से भर गईं। रोहिणेय का चोर मर गया। उसके आसन पर उसका साधु बैठ गया। बड़ा चोर कभी छोटा साधु नहीं हो सकता। उसने साधु जीवन की महत्ता को अंतिम सांस तक विकसित किया। ५. उन दिनों नेपाल रत्नकम्बल के लिए प्रसिद्ध था। कुछ व्यापारी रत्नकम्बल लेकर राजगृह पहुंचे । सम्राट् श्रेणिक का अभिवादन कर अपना परिचय दिया और रलकम्बल दिखलाए । एक रत्नकम्बल का मूल्य सवा लाख मुद्राएं । सम्राट् ने उन्हें खरीदने से इन्कार कर दिया। वे निराश हो गए। मगध सम्राट की यशोगाथा सुनकर वे आए थे। उन्हें आशा थी कि सम्राट् उनके सब कम्बल खरीद लेंगे। सम्राट ने एक भी नहीं खरीदा । वे उदास चेहरे लेकर राजप्रासाद से निकले। वे मगध और राजगृह के बारे में कुछ हल्की बातें करते जा रहे थे। __ राजगृह में गोभद्र नाम का श्रेष्ठी था। उसकी पत्नी का नाम था भद्रा। उसके शालिभद्र नाम का पुत्र था। गोभद्र इस लोक से चल बसा था। भद्रा घर का संचालन कर रही थी। वह अपने वातायन में बैठी थी। वे व्यापारी उसके नीचे से गुजरे। भद्रा ने उनकी बातें सुनीं । मगध और राजगृह के प्रति अवज्ञापूर्ण शब्द सुन उसे धक्का लगा। उसका देशाभिमान जाग उठा । उसने व्यापारियों को बुलाया। उसने मगध की राजधानी के प्रति घृणा प्रकट करने का हेतु पूछा । उन्होंने अपनी
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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