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सहयात्रा : सहयात्री
२५५ कर रखा है । भद्र-पुरुषों के इस नगर में केवल तू ही अभद्र है। अब तू अपने पापों का फल भुगतने को तैयार हो जा । तुझे क्यों नहीं मृत्युदंड दिया जाए ?'
बंदी बोला-'सम्राट् जो कह रहे हैं, वह बहुत उचित है। जिस रोहिणेय ने राजगृह को उत्पीड़ित कर रखा है, उसे मृत्युदंड अवश्य मिलना चाहिए। पर प्रभो ! जो रोहिणेय नहीं है, क्या उसे भी मृत्युदंड मिलना चाहिए ?'
बंदी का तर्क सुन सम्राट् और सभासद् एक क्षण मौन हो गए। सब ध्यानपूर्वक . उसके चेहरे की ओर देखने लगे। वे एक-दूसरे से पूछने लगे-'क्या यह रोहिणेय नहीं है ?' वातावरण में संदेह की तरंगें उठने लगीं। सम्राट् ने पूछा-'क्या तू रोहिणेय नहीं है ?' 'नहीं, बिलकुल नहीं।'
तो फिर तू कौन है ?' 'मैं शालग्राम का व्यापारी हूं।' 'तेरा नाम ?' 'दुर्गचण्ड। 'क्या व्यापार करता है ?' 'जवाहरात का।' 'रात को कहां जा रहा था ?'
'गांव से चलकर यहां आ रहा था। कुछ विलम्ब हो गया। इसलिए रात पड़ गई। प्रहरियों ने बंदी बना लिया।'
'क्या तू सच कह रहा है ?' 'आप जांच करा लें।'
सम्राट् ने अभयकुमार की ओर देखा। उसने सम्राट की भावना का समर्थन किया और गुप्तचर को उसकी जांच के लिए शालग्राम भेज दिया। सभा विसर्जित हो गई।
रोहिणेय ने शालग्राम की जनता पर जादू.कर रखा था। वह उस ग्राम की आकांक्षा की पूर्ति करता था । ग्राम ने उसकी आकांक्षा की पूर्ति की। उसने जो परिचय दिया था, उसकी ग्रामीण जनता ने पुष्टि की । गुप्तचर ने प्राप्त जानकारी की सचना सम्राट को दे दी। सम्राट ने रोहिणेय को मुक्त कर दिया। अभयकुमार ने उससे क्षमा याचना की और मैनी का प्रस्ताव किया। दोनों मित्र बन गए। अभयकुमार ने भोजन का अनुरोध किया। रोहिणेय ने वह स्वीकार कर लिया। शिक्षित कर्मचारियों ने उसके भोजन की व्यवस्था की। वह भोजन करते-करते मूच्छित हो गया । कर्मकरों ने उसे उठाकर एक भव्य प्रासाद में सुला दिया। कुछ घंटों वाद मादक द्रव्यों का नशा उतरा । वह अंगड़ाई लेकर उठा। उसने आंखें खोलीं। वह स्वप्न-लोक में उतर आया। मीठी-मीठी परिमल से उसका मन प्रफुल्लित हो गया।