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श्रमण महावीर
में गगन-गामिनी पादुकाएं वहां भूल गया। वह जिस मार्ग से दौड़ा, उसी के पास भगवान महावीर प्रवचन कर रहे थे। वह भगवान् की वाणी सुनना नहीं चाहता था। एक कुशल चोर चोरी का खण्डन करने वाले व्यक्ति की वाणी कैसे सुने ? पिता के आदेश-पालन का भी प्रश्न था। उसने भगवान् के प्रवचन-स्थल के पास पहुंचते ही गति तेज कर दी और कानों में अंगुलियां डाल लीं। पर नियति को यह मान्य नहीं था। उसी समय उसके दाएं पैर में एक तीखा कांटा चुभा। उसके पैर लड़खड़ाने लगे। गति मंद हो गई। उसे भय था कि कुछ लोग पीछा कर रहे हैं । कांटा निकाले विना तेज दौड़ना संभव नहीं रहा। उसे निकालने के लिए कानों से अंगुलियां हटाने पर महावीर की वाणी सुनने का खतरा था। उसने दो क्षण सोचा। वह पीछे का खतरा मोल लेना नहीं चाहता था। उसने कानों से अंगुलियां हटाकर कांटा निकाला। उस समय भगवान् देवता के बारे में चर्चा कर रहे थे-'देवता के नयन अनिमिष होते हैं और उनके पैर भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं।' भगवान् के ये शब्द उसके कानों में पड़ गए। वह फिर कानों में अंगुलियां डाल दौड़ा। महावीर के शब्दों को भुलाने का प्रयत्न करने लगा । जिसे भुलाने का प्रयत्न किया जाता है, उसकी धारणा अधिक पुष्ट हो जाती है। रोहिणेय प्रयत्न करने पर भी उस वाणी को भुला नहीं सका। वह उसकी धारणा में समा गई।
रोहिणेय का आतंक दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा था। नागरिक उत्पीड़ित हो रहे थे। एक दिन प्रमुख नागरिक एकत्र हो मगध नरेश श्रेणिक की राज्यसभा में पहुंचे । उनके चेहरों पर भय, विषाद और आक्रोश की त्रिवली खिंच रही थी। मगध सम्राट ने उनका कुशल पूछा। वे वोले-'आपकी छत्रछाया में सब कुशल था। पर रोहिणेय की काली छाया राजगृह के नागरिकों का कुशल लील गई।' सम्राट का चेहरा तमतमा उठा । उसने उसी समय नगर के कोतवाल को बुलाया और कड़ी फटकार सुनाई। कोतवाल ने प्रकंपित स्वर में कहा-'महाराज ! दस्यु बढ़ा दुर्दान्त है। मैंने उसे पकड़ने के बहुत प्रयत्न किए। मुझे कहते हुए संकोच हो रहा है कि मेरा एक भी प्रयत्न सफल नहीं हुआ । महामात्य अभयकुमार मेरा मागे दर्शन करें, तभी उस चोर को पकड़ा जा सकता है।'
अभयकुमार ने इस कार्य को अपने हाथ में ले लिया। उसने एक गुप्त योजना बनाई। गत के समय नगर के चारों दरवाजों को खुला रखा । प्रहरी अट्टालकों में छिपे रहे। रात के दम-बारह बजे होंगे। रोहिणेय ने दक्षिणी द्वार में प्रवेश किया। अट्टालकों के पास पहुंचते ही प्रहरियों ने उसे पकड़ लिया। उसे भाग निकलने का या रूप बदलने का कोई अवसर नहीं मिला।
दूसरे दिन नगर-रक्षक ने चोर को सम्राट के सामने प्रस्तुत किया। सम्राट् की भटी तन गई। उसने कोचावेश में कहा-'रोहिणेय ! तूने राजगृह को यातंकित