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________________ सहयात्रा : सहयात्री २५३ था । वह बहुत क्रूर था। उसे आत्मा और परमात्मा में कोई विश्वास नहीं था। वह धर्म और धर्म-गुरु के नाम से ही घृणा करता था। वह वर्षों तक राजगृह को आतंकित किए रहा। एक दिन काल ने उसे आतंकित कर दिया । मौत उसके सिर पर मंडराने लगी। उसने रोहिणेय से कहा-'मैं अब अंतिम बात कह रहा हूं। बेटे ! उसका जीवन भर पालन करना।' रोहिणेय बहुत गम्भीर हो गया । उसका .उत्सुक मन पिता के निर्देश की प्रतीक्षा में लग गया। लोहखुरो ने कहा-'राजगृह में महावीर नाम के एक श्रमण है। मैं सोचता हूं, तुमने उनका नाम सुना होगा ?' 'पिता ! मैंने उनका नाम सुना है । वे बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हैं। राजगृह उनके नाम पर मंत्रमुग्ध है।' 'पुत्र ! उनसे बढ़कर अपना कोई शत्रु नहीं है।' 'यह कैसे ?' 'एक बार उनके पास मेरे सहयोगी चले गए । लौटकर आए तो वे चोर नहीं रहे । श्रेणिक हमारा छोटा शत्रु है । वह चोर को बन्दी बना सकता है, पर अचोर नहीं बना सकता। महावीर चोर को अचोर बना देते हैं। उनका प्रयत्न हमारे कुलधर्म पर कुठाराघात है । इसलिए मैं कहता हूं कि तुम उनसे बचकर रहना । न उनके पास जाना और न उनकी वाणी सुनना।' __रोहिणेय ने पिता का आदेश शिरोधार्य कर लिया। लोहखुरो की अंतिम इच्छा पूरी हुई । उसने अपनी क्रूरता के साथ जीवन से अंतिम विदा ले ली। रोहिणेय के पैर पिता से आगे बढ़ गए। उसने कुछ विद्याएं प्राप्त कर ली और राजगह पर अपना पंजा फैलाना शुरू कर दिया। इधर महावीर के असंग्रह, अचौर्य और अभय के उपदेश चल रहे थे, उधर चोर-निग्रह के लिए महामात्य अभयकुमार के नित नए अभियान चल रहे थे। फिर भी राजगृह की जनता चोरी के आतंक से भयभीत हो रही थी। चोरी पर चोरी हो रही थी। बड़े-बड़े धनपति लटे जा रहे थे। आरक्षीदल असहाय की भांति नगर, पर्वत और जंगल की खाक छान रहा था। पर चोर पकड़ में नहीं आ रहा था। तस्कर रोहिणेय के पास गगन-गामिनी पादुकाएं थीं और वह रूप-परिवर्तनी विद्या को जानता था। वह कभी-कभी आरक्षीदल के सामने उपस्थित हो जाता और परिचय भी दे देता, पर पकड़ने का प्रयत्न करने से पूर्व ही वह रूप बदल लेता या आकाश में उड़ जाता। सव हैरान थे। राजा हैरान, मंत्री हैरान, आरक्षीदल हैरान और नगरवासी हैरान । अकेला रोहिणेय सबकी आंखों में धल झोंक रहा था। दिन का समय था । रोहिणेय एक सूने घर में चोरी करने घुसा। वह तिजोरी तोड़ने का प्रयत्न कर रहा था। पड़ोसियों को पता चल गया। थोड़ी देर में लोग एकत्र हो गए। रोहिणेय ने कोलाहल सुना । वह तत्काल वहां से दौड़ गया। जल्दी
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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