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श्रमण महावीर
'तपस्वी ! दंड का विधान करना तथागत की रीति नहीं है। कर्म का विधान करना तथागत की रीति है।'
'आयुष्मान् ! गौतम ! फिर कितने कर्मों का विधान करते हो ?' ___'तपस्वी ! मैं तीन कर्म बतलाता हैं। जैसे-कायकर्म, वचनकर्म और मनकम।' ___ 'आयुष्मान् ! गौतम ! तो क्या कायकर्म दूसरा है, वचनकर्म दूसरा है और मनकर्म दूसरा है।'
'तपस्वी ! कायकर्म दूसरा ही है, वचनकर्म दूसरा ही है, और मनकर्म दूसरा
'आयुष्मान् ! गौतम ! इन तीन कर्मों में से पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए किसको महादोपी ठहराते हो-कायकर्म को, वचनकर्म को या मनकर्म को ?'
'तपस्वी ! इन तीनों कर्मो में मैं मनकर्म को महादोषी बतलाता हूं।' दीर्घ तपस्वी निर्गन्य आसन से उठ जहां निग्गंथ नातपुत्त थे, वहां चला गया।
उस समय निग्गंथ नातपुत्त बालक (लोणकार) निवासी उपाली आदि की बड़ी गृहस्थ-परिषद् के साथ बैठे थे। तब निग्गंथ नातपुत्त ने दूर से ही दीर्घ-तपस्वी निग्रन्थ को आते देख पूछा
'तपस्वी ! मध्याह्न में तू कहां से आ रहा है ?' 'भंते ! श्रमण गौतम के पास से आ रहा हूं।' 'तपस्वी ! क्या तेरा श्रमण गोतम के साथ कथा-संलाप हुआ ?' "भंते ! हां, श्रमण गौतम के साथ मेरा कथा-संलाप हुआ।' 'तपस्वी ! थमण गौतम के साथ तेरा क्या कथा-संलाप हुआ ?'
तब दीर्घ तपस्वी निग्रंथ ने भगवान के साथ जो कुछ कथा-संलाप हुआ था, वर मव निग्गंध नातपुत्त को कह दिया।
साधु ! साधु ! तर.स्वी ! जैसा कि शास्ता के शासन को जानने वाले बहुश्रुत थापक दी तपस्वी निग्रंन्य ने थमण गौतम को बतलाया। वह मृत मनदंड इस महान् पायदंट के सामने क्या शोभता है ? पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए कायदंड हो महादोषी है, बननदंट और मनदंड वसे नहीं।"
भगवान महावीर अनेकान्तदृष्टि के प्रवक्ता थे। वे किसी तथ्य को एकांगी रिटी नहीं देने थे। प्रवृत्ति का मूल स्रोत काय है। इसलिए कायदंड महादीपी होगा । प्रवृति का प्रेरणा-छोत मन है, इसलिए वह भी महादोषी हो सकता अनि रे गा का भगत होने का मानदंट मन ही है। भान महावीर मामाह में बिहार कर रहे थे। सम्राट् श्रेणिक भगवान् को