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प्रवृत्ति यार में : मानदष्ट भीतर में
ર૪૩ चंदना करने गया । उसने राषि प्रसन्नचन्द्र को देया। राजपि को ध्यान-नाको नमन्कार किया और मन ही मन उनमे ध्यान की प्रगंगा मालाला लागेमा । कर भगवान के पास जाकर बोला-'मले ! मैंने बाने समय गजपि प्रगन्नगन्द्र को देगा । उनी ध्यान-गुदा को देगकर में बाग्चर्यचकित रह गया । लग रहा घा कि अभी ये बहत तन्मय है। इन नमाधि-अवस्था में उनका गीर जाए तो घे निश्चय ही निर्वाण को प्राप्त होंगे। यों भंते ! मैं ठीक कह रहा है न ?'
मह योग, मंते ?' 'तुम पारीर को देर रहे हो । नमाधि का मानदं तो उनकी पया गति होगी ?'
च दनरा।'
नमः ?'
नरना।' 'या पाले, भंते ?
'मह पर नया में नहीं जाएगा । जो नरक में जा सकता है, यह अभी उनी दिगा में आगे बढ़ रहा ।
'भो ! मैं उलार गया आप मारे गुलगाए।'
भगवान् ने गा-'तुम्हारे मागे दो गेनानी पल समे-मुग और दुमंग। जा देना एका मुनि अगायन शाम में एक पंर बन पर गरे । दृष्टि पूर्व थे नाम है। नमुन बोला-पितनी महान् माधना !'
दुपट उठा--'प. मया माधना म पुरनाट गार दिलाया पासपुर मा राजा अमनचन्दा मने अपने ही दरी. संधी पर गम । भार सही साल दिया। वही नाली में खोटा दाला जोर दिया। पा सामान भावाने बोपनी जगसी गला दधिदान में मिला।
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