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________________ २२२ श्रमण महावीर न्याय-दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम ने जल्प, वितण्डा और छल को तात्विक मान्यता दी। धर्म की सुरक्षा के लिए इन्हें विहित बतलाया। संगठन के सन्दर्भ में यह बहुत ही सूझ-बूझ की बात है । किन्तु अस्तित्व के सन्दर्भ में इनकी अर्हता नहीं है । भगवान् महावीर ने वाद-काल में भी अहिंसा को प्राथमिकता देने का सिद्धान्त निरूपित किया । जय और पराजय की बात व्यक्तिवादी के लिए विशिष्ट घटना हो सकती है, अस्तित्ववादी के लिए उसका विशेप अर्थ नहीं है । चेतना के जगत् में वाद करने वाले दोनों चेतनावान् हैं, समान चेतना के अधिकारी हैं, फिर कौन जीतेगा और कौन हारेगा? यह जय-पराजय की क्रीड़ा व्यक्तित्ववादी को ही शोभा दे सकती है। अस्तित्ववादी इस प्रपंच से मुक्त रहने में ही अपना श्रेय देखता है। वाद के विषय में भगवान महावीर ने तीन तत्त्व प्रतिपादित किए-- १. तत्त्व-जिज्ञासा का हेतु उपस्थित हो त्भी वाद किया जाए। २. वाद-काल में जय-पराजय की स्थिति उत्पन्न न की जाए। ३. प्रतिवादी के मन में चोट पहुंचाने वाले हेतुओं और तर्कों का प्रयोग न किया जाए। ____ अस्तित्ववादी की दृष्टि में व्यक्ति व्यक्ति नहीं होता, वह सत्य होता है, चैतन्य का रश्मिपुंज होता है । उसकी अन्तर्भेदी दुष्टि व्यक्तित्व के पार पहुंचकर अस्तित्व को खोजती है । अस्तित्व में यह प्रश्न नहीं होता कि यह कौन है और किसका अनुयायी है ? यह प्रश्न व्यक्तित्व की सीमा में होता है । अस्तित्व के क्षेत्र में सत्य चलता है और व्यक्तित्व के क्षेत्र में व्यवहार । भगवान् महावीर अस्तित्वादी होते हुए भी व्यक्तित्व की मर्यादा के प्रति बहुत जागरूक थे । वे व्यक्ति को अस्तित्व की ओर ले जाने में उसके व्यक्तित्व का भी उपयोग करते थे। भगवान् ने कहा-'भिक्षुओ ! किसी व्यक्ति के साथ धर्मचर्चा करो, तब पहले यह देखो कि यह पुरुष कौन है और किसका अनुयायी है।' एक बार भगवान् राजगृह में उपस्थित थे। उस समय भगवान् पार्श्व के श्रमण भगवान् के पास आए। उन्होंने पूछा-'भंते ! इस असंख्य लोक में अनन्त दिन-रात उत्पन्न और नष्ट हुए हैं या संख्येय ?' भगवान् ने कहा-'श्रमणो ! इस असंख्य लोक में अनन्त दिन-रात उत्पन्न और नष्ट हुए हैं।' उन्होंने पूछा--'भंते ! इसका आधार क्या है ?' भगवान ने कहा-'आपने भगवान् पार्श्व के श्रुत का अध्ययन किया है। वही इसका आधार है। भगवान् पार्श्व ने निरूपित किया है कि लोक शाश्वत हैअनादि-अनन्त है । यह अनादि-अनन्त है, इसलिए इसमें अनन्त दिन-रात उत्पन्न और नष्ट हुए हैं और होंगे।' १. भगवई, श२५४, २५५ ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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