________________
समन्वय की दिशा का उद्घाटन
जल और अग्नि में प्राकृतिक वैर है । दोनों एक साथ नहीं रह सकते । अग्नि उष्ण है और जल शीत । शीत उष्ण को मिटा देता है, जल अग्नि को बुझा देता है। क्या उष्ण और शीत में कोई सम्बन्ध नहीं है ?जल अग्नि को बुझा देता है, इसलिए इनमें सम्बन्ध की स्थापना कैसे की जा सकती है ? जल भी पदार्थ है और अग्नि भी पदार्थ है । पदार्थ का पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं होने की बात कैसे कही जा सकती है ? समस्या के दोनों तटों का पार पाने के लिए समन्वय का सेतु खोजा गया । समन्वय दो सम्बन्धों के व्यवधान को जोड़ने वाला सत्र है। भगवान महावीर ने उष्ण और शीत के बीच समन्वय की स्थापना की। उस सिद्धान्त के अनुसार उष्ण उष्ण ही नहीं है, वह शीत भी है और शीत शीत ही नहीं है, वह उष्ण भी है । उप्ण और शीत-दोनों सापेक्ष हैं। मक्खन को पिघलाने वाली अग्नि की कप्मा मक्खन के लिए उष्ण है और लोहे के लिए उष्ण नहीं है। वह अग्नि की साधारण जप्मा से नहीं पिघलता।
विश्व के जितने तत्त्व हैं, वे परस्पर किसी न किसी सम्बन्ध-सूत्र से जुड़े हुए हैं। कोई वस्तु दूसरी वस्तु से सर्वथा सदृश नहीं है और सर्वथा विसदृश भी नहीं है । हम कुछ वस्तुओं को सदृश मानते हैं और कुछ को विसदृश । इसका हेतु वस्तु की वास्तविकता नहीं है । यह हमारी दृष्टि का अन्तर है। हम सदृशता देखना चाहते हैं तब उसे भी देख लेते हैं और विसदृशता देखना चाहते हैं तब उसे भी देख लेते हैं । वस्तु में दोनों हैं, इसलिए जिसे देखना चाहें उसका मिलना स्वाभाविक बात है।
सदृशता और विसदृशता का सिद्धान्त वस्तु की यथार्थता है, इसलिए कोई भी ययावादी विचार एकांगी नहीं हो सकता, अपेक्षा से शून्य नहीं हो सकता।
भगवान् महावीर ने विचार और व्यवहार-दोनों क्षेत्रों में समन्वय के