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________________ २१६ श्रमण महावीर सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनकी परम्परा ने विचार के क्षेत्र में समन्वय के सिद्धान्त की सुरक्षा ही नहीं की है, उसे विकसित भी किया है। किन्तु व्यवहार के क्षेत्र में उसकी विस्मृति ही नहीं की है, उसकी अवहेलना भी की है। हरिभद्रसूरि ने नास्तिक को दार्शनिकों के मंच पर उपस्थित कर दर्शन जगत् को समन्वय की शक्ति से परिचित करा दिया। आस्तिक दर्शन नास्तिक को दर्शन की कक्षा में सम्मिलित करने की कल्पना नहीं करते थे। हरिभद्र ने उसे आकार दे दिया। उपाध्याय यशोविजयजी के सामने प्रश्न आया कि आस्तिक कौन और नास्तिक कौन ? उन्होंने समन्वयदृष्टि से देखा और वे कह उठे-~-'पूरा नास्तिक कोई नहीं है और पूरा आस्तिक भी कोई नहीं है । चार्वाक आत्मा को नहीं मानता, इसलिए नास्तिक है तो एकान्तवादी दर्शन वस्तु के अनेक धर्मों को नहीं मानते, फिर वे नास्तिक कैसे नहीं होंगे ? धर्मों को स्वीकारने वाले एकान्तवादी दर्शन यदि आस्तिक हैं तो धर्मों का स्वीकार करने वाला चार्वाक आस्तिक कैसे नहीं है ?' आचार्य अकलंक ने कहा-~'आत्मा चैतन्य धर्म की अपेक्षा से आत्मा है, शेष धर्मों की अपेक्षा से आत्मा नहीं है। आत्मा और अनात्मा में समान धर्मों की कमी नहीं है।' सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, हरिभद्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने समन्वय की परम्परा को इतना उजागर किया कि जैन दर्शन का सिन्धु सब दृष्टि-सरिताओं को समाहित करने में समर्थ हो गया। वेदान्त का अद्वैत जैन दर्शन का संग्रह नय है। चार्वाक का भौतिक दृष्टिकोण जैन दर्शन का व्यवहार नय है । बौद्धों का पर्यायवाद जैन दर्शन का ऋजुसूत्र नय है। वैयाकरणों का शब्दाद्वैत जैन दर्शन का शब्द नय है। जैन दर्शन ने इन सब दृष्टिकोणों की सत्यता स्वीकार की है, किन्तु एक शर्त के साथ। शर्त यह है कि इन दृष्टिकोणों के मनके समन्वय के धागे में पिरोए हुए हों तो सब सत्य हैं और ये अपनी सत्यता प्रमाणित कर दूसरों के अस्तित्व पर प्रहार करते हों तो सव असत्य हैं । समन्वय का बोध सत्य का वोध है। समन्वय की व्याख्या सत्य की व्याख्या है । अनन्त सत्य एक दृष्टिकोण से गम्य और एक शब्द से व्याख्यात नहीं हो सकता। समन्वय सिद्धान्त के प्रसंग में एक जिज्ञासा उभरती है कि महावीर ने सव दर्शनों की दष्टियों का समन्वय कर अपने दर्शन की स्थापना की या उनका कोई अपना मौलिक दर्शन है ? महावीर के दो विशेषण हैं-सर्वज्ञ और सर्वदर्शी। वे सबको जानते थे और सबको देखते थे । सर्वज्ञान और सर्वदर्शन के आधार पर उन्होंने अपने दर्शन की व्याख्या की। उसका मौलिक स्वरूप यह है कि प्रत्येक द्रव्य में अनन्त धर्म हैं और
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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