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मुक्त मानस : मुक्त द्वार
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कालोदायी ने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाते हुए कहा - 'भंते ! चली थी ।' 'कालोदायी ! पंचास्तिकाय हैं या नहीं - यह प्रश्न किसे होता है ?" "भंते ! आत्मा को होता है ।'
'क्या आत्मा है ? '
'भंते ! वह अवश्य है । अचेतन को कभी जिज्ञासा नहीं होती ।'
'कालोदायी ! जिसे तुम आत्मा कहते हो, उसे मैं जीवास्तिकाय कहता हूं ।' 'भंते ! यह ठीक है | पर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व कैसे माना जा सकता है ? '
'मछली जल में तैरती है । तैरने की शक्ति मछली में है या जल में ?'
'भंते! तैरने की शक्ति मछली में है, जल में नहीं है । जल उसके तैरने में सहायक बनता है ।'
'इसी प्रकार जीव और पुद्गल की गति में सहायता की अपेक्षा होती है । उसकी पूर्ति जिससे होती है, वह तत्त्व धर्मास्तिकाय है ।'
'भंते ! अधर्मास्तिकाय की क्या अपेक्षा है ? '
'चिलचिलाती धूप है | पथिक चल रहा है। एक सघन पेड़ आया। ठंडी छांह देखी और पथिक ठहर गया । उसकी स्थिति में निमित्त बनी छाया । इसी प्रकार जो स्थिति में निमित्त बनता है, वह तत्त्व अधर्मास्तिकाय है ।'
'भंते ! तब आकाश का क्या कार्य होगा ?'
'आकाश आधार देता है, स्थिति नहीं । गति और स्थिति - दोनों उसी में होते हैं।'
'भंते ! फिर पुद्गलास्तिकाय क्या है ?' 'इस लता पर लगे फूल को देख रहे हो ?' 'भंते ! हां, इसका लाल रंग देख रहा हूं ।' 'इसकी विशेषता क्या है ?"
'भंते ! गंध ।'
'यह मधुमक्खी क्यों भिनभिना रही है ?" "भंते ! इसका रस लेने के लिए ।'
'इसका स्पर्श कैसा है ?"
'भंते ! बहुत कोमल ।'
'कालोदायी ! जिस वस्तु में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, उसे में पुद्गलास्तिकाय कहता हूं ।'
"भंते ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई जीव बठ सकता है ? खड़ा रह सकता है ? लेट सकता है ?"
'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। केवल पुद्गल पर ही कोई बैठ सकता है, खड़ा