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श्रमण महावीर
'हां, होती है।' 'आयुष्मान् ! आप अरणि में रही हुई अग्नि का रूप देखते हैं ?' 'नहीं, ऐसा नहीं होता।' 'आयुष्मान् ! समुद्र के पार रूप हैं ?' 'हां, हैं।' 'आयुष्मान् ! आप समुद्र के पारवर्ती रूपों को देखते हैं ?' 'नहीं, ऐसा नहीं होता।' 'आयुष्मान् ! देवलोक में रूप हैं ?' 'हां, हैं।' 'आयुष्मान् ! आप देवलोक में विद्यमान रूपों को देखते हैं ?' 'नहीं, ऐसा नहीं होता।'
'आयुष्मान् ! जैसे उक्त वस्तुओं के न दीखने पर भी उनके अस्तित्व को कोई आंच नहीं आती वैसे ही मैं या आप न जाने-देखें उससे वस्तु का नास्तित्व प्रमाणित नहीं होता। यदि आप वस्तु के न दीखने पर उसका अस्तित्व स्वीकार नहीं करेंगे तो आपको जगत् के बहुत बड़े भाग के अस्तित्व को अस्वीकार करना होगा।'
मदुक के इस तर्क पर सब परिव्राजक मौन हो गए। तब वह वहां से चल भगवान् महावीर के पास पहुंचा । भगवान् ने उसे सम्बोधित कर कहा-'मदुक ! तुमने कहा-जो क्रिया करता है, उसे हम जानते-देखते हैं और जो क्रिया नहीं करता, उसे हम नहीं जानते-देखते । यह बहुत सुन्दर कहा, यह बहुत उचित कहा। जो व्यक्ति अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अमत और अविज्ञात अर्थ का जन-जन के बीच निरूपण करता है, वह सत्य की अवहेलना करता है।'
कुछ दिनों बाद उन परिव्राजकों ने गौतम से फिर वही प्रश्न पूछा । गौतम ने उत्तर की भाषा में कहा - 'देवानुप्रियो ! हम अस्ति को नास्ति और नास्ति को अस्ति नहीं कहते हैं । हम सम्पूर्ण अस्ति को अस्ति और सम्पूर्ण नास्ति को नास्ति कहते हैं । इसलिए भगवान् ने उन्हीं के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है जिनका अस्तित्व है।'
गौतम का यह उत्तर सुन परिव्राजक मौन हो गए। पर उनके मन का संदेह दूर नहीं हुआ।
गौतम भगवान् के पास पहुंचे। उनके पीछे-पीछे परिव्राजक कालोदायी वहां पहंचा। उस समय भगवान विशाल परिपद में धर्म-संवाद कर रहे थे। भगवान ने कालोदायी को सम्बोधित कर कहा- 'कालोदायी ! तुम्हारी मंडली में यह चर्चा चली थी कि श्रमण महावीर पंचास्तिकाय का निरूपण करते हैं। पर जो प्रत्यक्ष नहीं है, उन्हें कमे माना जा सकता है ?'