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________________ सतत जागरण १८९ कर कहा-'क्या कर रहे हो ?' 'भंते ! आत्म-विश्लेषण कर रहा हूं।' 'मेरे दर्शन में दोष देख रहे हो या अपनी गति में ?' 'भंते ! दूसरे में दोष देखने की आपकी अनुमति नहीं है, इसलिए अपनी गति का ही विश्लेषण कर रहा हूं।' 'तुम जानते हो हर व्यक्ति अज्ञान और मोह के महासागर के इस तट पर खड़ा 'भंते ! जानता हूं।' 'तुमने उस तट पर जाने का संकल्प किया है, यह स्मृति में है न ?' ."भंते ! है।' 'फिर उलझन क्या है ? 'भंते ! उलझन यही है कि उस तट पर पहुंच नहीं पा रहा हूं।' भगवान् ने गौतम के पराक्रम को प्रदीप्त करते हुए कहा 'तुम उस महासागर को बहुत पार कर चुके हो। अब तट पर आकर तुम्हारे पर क्यों अलसा रहे हैं ? त्वरा करो पार पहुंचने के लिए गौतम ! पल भर भी प्रमाद मत करो।" भगवान् आश्वासन की भाषा में बोले-'गौतम ! तुम अधीर क्यों हो रहे हो? तुम चिरकाल से मेरे साथ स्नेह-सूत्र से बंधे हुए हो। चिरकाल से मेरे प्रशंसक हो। चिरकाल से परिचित हो। चिरकाल से प्रेम करते रहे हो। चिरकाल से अनुगमन करते रहे हो। चिरकाल से अनुकूल बर्तते रहे हो।' ___'इससे पहले जन्म में मैं देव था, उस समय तुम मेरे साथ थे। मनुष्य जन्म में भी तुम मेरे साथ हो । मेरा और तुम्हारा सम्बन्ध चिरपुराण है। भविष्य में इस देह-मुक्ति के बाद हम दोनों तुल्य होंगे। मेरा और तुम्हारा अर्थ भिन्न नहीं होगा, प्रयोजन भिन्न नहीं होगा, क्षेत्र भिन्न नहीं होगा । हम दोनों में पूर्ण साम्य होगा, कोई भी नानात्व नहीं होगा। यह सब स्वल्प काल में ही घटित होने वाला है। फिर तुम खिन्न क्यों होते हो? तुम जागरूक रहो, पल भर भी प्रमाद मत करो।२ भगवान् के आश्वासन से गौतम में नव-चेतना का संचार हो गया। वे चिन्ता से मुक्त हो पुनः अप्रमाद के क्षण में आ गए। फिर भी उनके अतल में उभरती जिज्ञासा समाहित नहीं हुई। चेतना के विकास का पथ छोटा और लम्बा क्यों १. उत्तरज्झयणाणि १०॥३४ : तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागयो। अभितुरं पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए । २. भगवई १४७७ ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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