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श्रमण महावीर
बाहर से नहीं आता । वह भीतर में है । बाहर से कुछ भी नहीं लेना है । हम भीतर से पूर्ण हैं । हमारी अपूर्णता बाहर में ही प्रकट हो रही है । प्रमाद का ढक्कन हट जाए, फिर भीतर और बाहर -- दोनों आलोकित हो उठते हैं ।
गौतम पृष्ठचंपा से विहार कर भगवान् के पास आ रहे थे । पृष्ठचंपा के राजर्षि शाल और गागलि उनके साथ थे । भगवान् के समवसरण में बैठने की व्यवस्था होती है । सब श्रोता अपनी-अपनी परिषद् में बैठते हैं । शाल और गागलि केवली -परिषद् की ओर जाने लगे । गौतम ने उन्हें उधर जाने से रोका । भगवान् ने कहा - 'गौतम ! इन्हें मत रोको | ये केवली हो चुके हैं ।"
गौतम आश्चर्यचकित रह गए - 'मेरे नव-दीक्षित शिष्य केवली और मैं अकेवली | यह क्या ?' गौतम उदास हो गए । प्रमोद की तमिस्रा सघन हो गई ।
कुछ दिनों बाद गौतम अष्टापद की यात्रा पर गए । कोडिन्न, दिन्न और शैवाल -- तीनों तापस अपने शिष्यों के साथ उस पर चढ़ रहे थे । वे गौतम से प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गए । गौतम उन्हें साथ लेकर भगवान् के पास आए । वे केवली - परिषद् में जाने लगे । गौतम ने उन्हें उधर जाने से रोका । भगवान् ने कहा - 'गौतम ! इन्हें मत रोको । ये केवली हो चुके हैं । "
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गौतम का धैर्य विचलित हो गया । वे इस घटना का रहस्य समझ नहीं सके । बोधदाता अकेली और बोधि प्राप्त करने वाले केवली । चिरदीक्षित अकेवली और नवदीक्षित केवली । यह कैसी व्यवस्था ? यह कैसा क्रम ? गौतम का मानससिन्धु विकल्प की ऊर्मियों से आलोड़ित हो गया । उनका विकल्प बोल उठा'मैं किसे दोष दूं ? मेरे भगवान् ने ईश्वर को नियंता माना नहीं, फिर मैं उस पर पक्षपात का आरोप कैसे लगाऊं ? मेरे भगवान् भी मेरे आंतरिक परिवर्तन के नियंता नहीं हैं । इस प्रकार वे भी पक्षपात के आरोप से बच जाते हैं । अपने भाग्य का नियंता स्वयं मैं हूं । अपने प्रतिपक्ष या प्रति पक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे भगवान् ने व्यक्ति को असीम स्वतंत्रता क्या दी है, एक अबूझ पहेली उसके सामने रख दी है । उसे सुलझाने में वह इतना उलझ जाता है कि न किसी दूसरे पर पक्षपात का आरोप लगा पाता है और न किसी से कोई याचना कर पाता है । यह मेरा अयाचक व्यक्तित्व आज मेरे लिए समस्या बन रहा है ।'
'मेरे देव ! हम सब एक ही साधना-पथ पर चल रहे हैं । फिर मेरे शिष्यों का मार्ग इतना छोटा और मेरा मार्ग न जाने कितना लम्बा है ?"
महावीर ने गौतम के मर्माहत अन्तस्तल को देखा और देखा कि उसकी मनोव्यथा पिघल- पिघलकर बाहर आ रही है । भगवान् ने गौतम को सम्बोधित
१. उत्तराध्ययन, सुखबोधा वृत्ति, पत १५४ |
२. उत्तराध्ययन, सुखवोधा वृत्ति, पत्र १५५ 1