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सतत जागरण
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है । अप्रमत्त मनुष्य को न भय की अनुभूति होती है और न दु.ख की।
कामदेव अपने उपासना-गृह में शील और ध्यान की आराधना कर रहा था। पूर्वरात्रि का समय था। उसके सामने अकस्मात् पिशाच की डरावनी आकृति उपस्थित हो गई। वह कर्कश ध्वनि में बोली-'कामदेव ! इस शील और ध्यान के पाखण्ड को छोड़ दो। यदि नहीं छोड़ोगे तो तलवार से तुम्हारे सिर के टुकड़ेटुकड़े कर डालूंगा।' कामदेव अप्रमाद के क्षण का अनुभव कर रहा था। उसके मन में न भय आया, न कम्पन और न दुःख ।
पिशाच को अपने प्रयत्न की व्यर्थता का अनुभव हआ। वह खिसिया गया। उसने विशाल हाथी का रूप बना कामदेव को फिर विचलित करने की चेष्टा की। उसे गेंद की भांति आकाश में उछाला। नीचे गिरने पर पैरों से रौंदा। पर उसका ध्यान भंग नहीं कर सका।
पिशाच अब पूरा सठिया गया। उसने भयंकर सर्प का रूप धारण किया । कामदेव के शरीर को डंक मार-मारकर बींध डाला। पर उसे भयभीत नहीं कर सका। आखिर वह अपने मौलिक देवरूप में उपस्थित हो वहां से चला गया। प्रमाद अप्रमाद से पराजित हो गया ।' ___ भगवान् महावीर चंपा में आए। कामदेव भगवान् के पास आया। भगवान् ने कहा-'कामदेव ! विगत रात्रि में तुमने धर्म-जागरिका की ?'
'भंते ! की।' 'तुम्हें विचलित करने का प्रयत्न हुआ ?' 'भंते ! हआ । 'वहत अच्छा हुआ, तुम कसौटी पर खरे उतरे।' 'भंते ! यह आपकी धर्म-जागरिका का ही प्रभाव है।'
भगवान् ने श्रमण-श्रमणियों को आमंत्रित कर कहा--'आर्यो ! कामदेव गृहवासी है, फिर भी इसने अपूर्व जागरूकता का परिचय दिया है, दैविक उपसर्गों को अपूर्व समता से सहा है । इसका जीवन धन्य हो गया है । तुम मुनि हो। इसलिए तुम्हारी धर्म-जागरिका, समता, सहिष्णुता और ध्यान की अप्रकम्पता इससे अनुत्तर होनी चाहिए।
अप्रमाद शाश्वत-प्रकाशी दीप है। उससे हज़ार-हज़ारों दीप जल उठते हैं। हर व्यक्ति अपने भीतर में दीप है । उस पर प्रमाद का ढक्कन पड़ा है। जिसने उसे हटाने का उपाय जान लिया, वह जगमगा उठा । वह आलोक से भर गया। आलोक
१. उवासगदसामो, २॥१८-४० । २. तीर्थकर काल का अठारहवां वर्ष। ३. उवासगदसामो २१४५,४६ ।