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शान्त हो गया । सम्राट् धन्य हो गया ।
आत्मा की स्मृति के क्षण जीवन की सार्थकता के क्षण होते हैं । मानवीय जीवन में जितनी सार्थकताएं निष्पन्न होती हैं, वे सब इन्हीं क्षणों में होती हैं ।
भगवान् ने ध्यान के क्षणों में अनुभव किया कि आत्मा सूर्य की भांति प्रकाशमय है, चैतन्यमय है । उसमें न जीवन है और न मृत्यु । न जीवन की आकांक्षा है और मृत्यु का भय । देह और प्राण का योग मिलता है, आत्मा देही के रूप में प्रकट हो जाती है, जीवित हो जाती है । देह और प्राण का सम्बन्ध टूटता है, आत्मा देह से छूट जाती है, मर जाती है ।
श्रमण महावीर
आत्मा देह के होने पर भी रहती है और उसके छूट जाने पर भी रहती है । फिर जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय क्यों होता है ? भगवान् ने इस रहस्य को देखा और बताया कि आत्मा में आकांक्षा नहीं है । उसकी विस्मृति ही आकांक्षा है । आत्मा में भय नहीं है । उसकी विस्मृति ही भय है । भगवान् की वह ध्वनि आज भी प्रतिध्वनित हो रही है - 'सव्वओ पमत्तस्स भयं ' - ' प्रमत्त को सब ओर से भय है ।' 'सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं ' - 'अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं है ।"
एक बार भगवान् ने 'आर्यो ! आओ, कहकर गौतम और श्रमणों को आमंत्रित किया। सभी श्रमण भगवान् के पास आए । भगवान् ने उनसे पूछा'आयुष्यमान् श्रमणो ! जीव किससे डरते हैं ? ' गौतम बोले- 'भगवन् ! हम नहीं समझ पाए इस प्रश्न का आशय । भगवान् को कष्ट न हो तो आप ही इसका आशय हमें समझाएं । हम सब जानने को उत्सुक हैं ।'
'आर्यो ! जीव दुःख से डरते हैं ।'
'भंते ! दुःख का कर्ता कौन है ? ' 'जीव '
'भंते ! दुःख का हेतु क्या है ?' 'प्रमाद |
'भंते ! दुःख का अन्त कौन करता है ? ' 'जीव ।'
'भंते ! दुःख के अन्त का हेतु क्या है ?' 'अप्रमाद ।”
इस प्रसंग में भगवान् ने एक गम्भीर सत्य का उद्घाटन किया । भगवान् कह रहे हैं कि भय और दुःख शाश्वत नहीं हैं । वे मनुष्य द्वारा कृत हैं । प्रमाद का क्षण ही भय की अनुभूति का क्षण है और प्रमाद का क्षण ही दुःख की अनुभूति का क्षण
१. आयारो, ३।७५ २. ठाणं. ३।३३६ |