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क्रान्ति का सिंहनाद
१३९ अभिवादन करने में किसी को लज्जा का अनुभव नहीं होना चाहिए । सम्राट् और नौकर होने की विस्मृति होने पर ही आत्मा में समता प्रतिष्ठित हो सकती है।"
राजर्षि का अहं विलीन हो गया। उनका नौकर अब उनका सार्मिक भाई बन गया।
भगवान् ने अपने संघ को एक समता-सूत्र दिया। वह हज़ारों-हजारों कंठों से मुखरित होता रहा । उसने असंख्य लोगों के 'अहं' का परिशोधन किया। वह सूत्र
___'यह जीव अनेक वार उच्च या नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है। अतः न कोई किसी से हीन है और न कोई अतिरिक्त । यह जीव अनेक वार उच्च या नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है-यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा और कौन मानवादी।
भगवान् ने अपने संघ में समता का वीज बोया, उसे सींचा, अंकुरित किया, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया। ___भगवान् ने समता के प्रति प्रगाढ़ आस्था उत्पन्न की । अत: उसकी ध्वनि सब दिशाओं में प्रतिध्वनित होने लगी। ___ जयघोष मुनि घूमते-घूमते वाराणसी में पहुंचे। उन्हें पता चला कि विजयघोष यज्ञ कर रहा है। वे विजयघोष की यज्ञशाला में गए। यज्ञ और जातिवाद का अहिंसक ढंग से प्रतिवाद करना महावीर के शिष्यों का कार्यक्रम बन गया था। इस कार्यक्रम में ब्राह्मण मुनि काफी रस ले रहे थे। जयघोष जाति से ब्राह्मण थे। विजयघोप भी ब्राह्मण था । एक यज का प्रतिकर्ता और दूसरा उसका कर्ता। एक जातिवाद का विघटक और दसरा उसका समर्थक। ___ श्रमण और वैदिक--ये दो जातियां नहीं हैं। ये दोनों एक ही जाति-वृक्ष की दो विशाल शाखाएं हैं । उनका भेद जातीय नहीं किन्तु सैद्धान्तिक है। श्रमणधारा का नेतृत्व क्षत्रिय कर रहे थे और वैदिक धारा का नेतृत्व ब्राह्मण। फिर भी बहुत सारे ब्राह्मण श्रमण-धारा में चल रहे थे और बहुत सारे क्षत्रिय ब्राह्मण-धारा में । उस समय धर्म-परिवर्तन व्यक्तिगत प्रश्न था। उसका व्यापक प्रभाव नहीं
१. सूयगडो, १२।२५:
जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेस गपेसगे सिया ।
इद मोणपयं उवट्ठिए, णो लज्जे समयं सया चरे ।। २. मायारो, २।४६,५० :
से असई उच्चागोए, असई पीयागोए । पो होणे पो नरिते, णो पीहए। इति संपाय के गोयावादी ? के मापावादी ?