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क्रान्ति का सिंहनाद
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२. एक निर्ग्रन्थ ने पूछा-'तो भंते ! हमारा कोई गोत्र नहीं है ?' 'सर्वथा नहीं।' "भंते ! यह कैसे ?' 'तुम्हारा ध्येय क्या है ?' "भंते ! मुक्ति ।' 'वहां तुम्हारा कीन-सा गोत्र होगा ?' 'भंते ! वह अगोन है।'
'सगोत्र अगोत्र में प्रवेश नहीं पा सकता। इसलिए मैं कहता हूं-तुम अगोत्र हो, गोत्रातीत हो।'
भगवान् ने निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा-'आर्यों ! निर्ग्रन्थ को प्रज्ञा, तप, गोत्र और आजीविका का मद नहीं करना चाहिए। जो इनका मद नहीं करता, वही सब गोत्रों से अतीत होकर अगोत्र-गति (मोक्ष) को प्राप्त होता
३. भगवान् के संघ में सव गोत्रों के व्यक्ति थे। सव गोत्रों के व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते थे। उस समय नाम और गोत्र से सम्बोधित करने की प्रथा थी। उच्च गोत्र से सम्बोधित होने वालों का अहं जागृत होता । नीच गोत्र से सम्बोधित व्यक्तियों में हीन भावना उत्पन्न होती। अहं और हीनता-ये दोनों विषमता के कीर्ति-स्तम्भ हैं। भगवान् को इनका अस्तित्व पसन्द नहीं था । भगवान् ने एक बार निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा-'आर्यो ! मेरी आज्ञा है कि कोई निर्ग्रन्थ किसी को गोत्र से सम्बोधित न करे ।२
४. जैसे-जैसे भगवान् का समता का आन्दोलन वल पकड़ता गया, वैसे-वैसे जातीयता के जहरीले दांत काटने को आकुल होते गए। विषमता के रंगमंच पर नए-नए अभिनय शुरू हुए । ईश्वरीय सत्ता की दुहाई से समता के स्वर को क्षीण करने का प्रयत्न होने लगा।
इधर मानवीय सत्ता के समर्थक सभी श्रमण सक्रिय हो गए। भगवान बुद्ध का
१. सूयगडो, १।१३।१५,१६ :
पण्णामदं चेप तवोमदं च, पिण्णामए गोयमदं च भिक्खू । माजीवगं चेव चउत्यमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ।। एयाई मदाई विगिय धीरा, ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते सबगोतावगता महेसी, उच्चं बगोतं च गतिं वयंति ॥ सूयगडो, १।६।२७: गोयावायं च णो वए । सूतकृतांगचूणि, पृ० २२५ : यथा कि भो ! ब्राह्मण क्षत्रिय काश्यपगोन इत्यादि।