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श्रमण महावीर
किए । आज हमें अचरज हो सकता है कि साधु-संस्था में इस प्रयोग का अर्थ क्या है ? किन्तु ढाई हज़ार वर्ष पुराने युग में यह अचरज की बात नहीं थी । उस समय यह वास्तविकता थी । बहुत सारे साधु-संन्यासी जाति - गोत्र की उच्चता और नीचता के प्रतिपादन में अपना श्रेय मानते थे । यह विषमता धर्म के मंच से ही पाली - पोसी जाती थी । इसका विरोध भी धर्म के मंच से हो रहा था । भगवान् महावीर ने समता के मंच का नेतृत्व सम्भाल लिया । उनके सशक्त नेतृत्व को पाकर समता का आन्दोलन प्राणवान् हो गया ।
भगवान् के संघ में सम्मिलित होने वाले व्यक्ति को सबसे पहले समता ( सामायिक ) का व्रत स्वीकारना होता, फिर भी कुछ मुनियों के जाति-संस्कार क्षीण नहीं होते ।
१. एक बार कुछ निर्ग्रन्थ भगवान् के पास आकर बोले- 'भंते ! हम भगवान् के धर्म - शासन में प्रव्रजित हुए हैं । भगवान् ने हमें समता-धर्म में दीक्षित किया है । फिर भी भंते ! हमारे कुछ साथी अपने गोल का मद करते हैं और अपने बड़प्पन को बखानते हैं ।'
भगवान् ने उस साधु-कुल को आमंत्रित कर कहा'आर्यो ! तुम प्रव्रजित हो, इसकी तुम्हें स्मृति है ?" 'भंते ! है । '
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'आर्यो ! तुम कहां प्रव्रजित हो, इसकी तुम्हें स्मृति है ?" 'भंते ! है | हम भगवान् के शासन में प्रव्रजित हैं । '
'आर्यो ! तुम्हें इसका पता है, मैंने किस धर्म का प्रतिपादन किया है ? '
'भंते ! हमें वह ज्ञात है । भगवान् ने समता-धर्म का प्रतिपादन किया है ।" 'आर्यो ! समता-धर्म में जाति-मद के लिए कोई स्थान है ? '
'भंते ! नहीं है । पर हमारे पुराने संस्कार अभी छूट नहीं रहे हैं ।'
उस समय भगवान् ने उन्हें पथ-दर्शन दिया
'जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र या लिच्छवि मेरे समता-धर्म में दीक्षित होकर गोत्र का मद करता है, वह लौकिक आचार का सेवन करता है ।'
'वह सोचे - क्या परदत्तभोजी श्रमण को गोल-मद करने का अधिकार है ? ' 'वह सोचे - क्या उसे जाति और गोत्र ताण दे सकते हैं या विद्या और चारित्र ? २
१. सूयगडो, १२ ६ : समताधम्म मुदाहरे मुणी ।
२. सूयगडो, ५।१३।१०, ११ :
जे माहणे खत्तिए जाइए वा, तहुग्गपुत्ते तह लेच्छवी वा ।
जे पव्वइए परदत्तभोई, गोतेण जे थव्भति माणबद्धे ॥
ण तस्स जाती व कुलं व ताणं, णण्णत्य विज्जाचरणं सुचिणं । खिम्म से सेवईगारिकम्मं ण से पारए होति विमोयणाए ।