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अपरिग्रह बन जाती है ।
परिग्रह के मुख्य प्रकार दो हैं - शरीर और वस्तु । शरीर को छोड़ा नहीं जा सकता । उसके प्रति होनेवाली मूर्च्छा को छोड़ा जा सकता है । वस्तु को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता । उसके प्रति होनेवाली मूर्च्छा को छोड़ा जा सकता है । वस्त्र जैसे वस्तु है, वैसे भोजन भी वस्तु है । वस्त्र और भोजन चैतन्य की मूर्च्छा के हेतु न बनें, यह सोचकर भगवान् ने कुछ व्यवस्थाएं दीं -
१. जो मुनि जित लज्ज और जित परीषह हों वे विवस्त्र रहें। वे पात्र न रखें
२. जो मुनि जित लज्ज और जित - परीषह न हों वे एक वस्त्र और एक पात्र रखें ।
श्रमण महावीर
३. जो मुनि एक वस्त्र से काम नहीं चला सकें वे दो वस्त्र और एक पात्र रखें ।
४. जो मुनि दो वस्त्र से काम न चला सकें वे तीन वस्त्र और एक पात्र रखें ।
५. जो मुनि लज्जा को जीतने में समर्थ हों किन्तु सर्दी को सहने में समर्थ न हों, वे ग्रीष्म ऋतु के आने पर विवस्त्र हो जाएं ।
६. वस्त्र रखने वाले मुनि रंगीन और मूल्यवान् वस्त्र न रखें ।
७. मुनि के निमित्त बनाया या खरीदा हुआ वस्त्र न लें ।
दिगम्बर परम्परा आज भी वस्त्र न रखने के पक्ष में है । श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र रखने के पक्ष में है | इसमें कोई संदेह नहीं कि श्वेताम्बर परम्परा में उत्तरोत्तर वस्त्रों और पात्रों की संख्या में वृद्धि हुई है ।
भोजन और विहार
भोजन के विषय में विधान यह था
१. मुनि रात को न खाए ।
२. सामान्यतया दिन में बारह बजे के पश्चात् एक बार खाए ।
३. यदि अधिक बार खाए तो पहले पहर में लाया हुआ भोजन चौथे पहर में
न खाए ।
४. बत्तीस कौर से अधिक न खाए ।
५. मादक और प्रणीत वस्तुएं न खाए ।
भोजन
६. माधुकरी-चर्या द्वारा प्राप्त भोजन ले, अपने निमित्त बना हुआ स्वीकार न करे ।
७. लाकर दिया हुआ भोजन स्वीकार न करे ।
भगवान् पार्श्व के शिष्यों के लिए परिव्रजन की कोई मर्यादा नहीं थी । वे एक