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श्रमण महावीर
(द्वादशांगी) की रचना की। उसमें भगवान् महावीर के दर्शन और तत्त्वों क प्रतिपादन किया।
गणधरों ने सोचा-हम इतने दिन पर्यायों में उलझ रहे थे, मूल तक पहुंच है नहीं पाए। मनुष्य, पशु, पक्षी-ये सब पर्याय हैं। मूल तत्त्व आत्मा है। आत्म मल है और ये सब पर्याय उसी के प्रकाश से प्रकाशित हैं, तब कोई हीन कैसे और अतिरिक्त कैसे ? कोई नीच कसे और ऊंच कैसे ? कोई स्पृश्य कैसे और अस्पृश्य कैसे ? ये सब पर्याय आत्मा के आलोक से आलोकित हैं, तब जन्मना जाति क अर्थ क्या होगा? जातिवाद तात्त्विक कैसे होगा ? स्त्री और शूद्र को हीन मान का आधार क्या होगा?
देवता और पशु दोनों एक ही आत्मा की ज्योति से ज्योतित हैं, फिर देवत के लिए पशु-बलि देने का औचित्य कैसे स्थापित किया जा सकता है ?
इस त्रिपदी ने गणधरों के अन्तःचक्षु खोल दिए। उनके चिरकालीन संस्का भगवान् की ज्ञान-गंगा के प्रवाह में धुल गए।