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________________ संघ-व्यवस्था भगवान महावीर अहिंसा के साधक थे। अहिंसा की साधना का अधं है-- मन की ग्रन्थियों को खोल डालना। यही है मुक्ति, यही है स्वतंत्रता । राजनीति की सीमा में स्वतंत्रता का अर्थ सापेक्ष होता है । एक देश पर दूसरा देश शासन करता है, तब यह परतंत्र कहलाता है । एक देश उसमें रहने वाली जनता के द्वारा शासित होता है, तब वह स्वतंत्र कहलाता है। अहिंसा की भूमिका में स्वतंत्रता का अर्थ निरपेक्ष होता है। जिसका मन प्रन्धियों से मुक्त नहीं है, यह किनी दूसरे व्यक्ति द्वारा शासित हो या न हो, परतंत्र है। जिसके मन की प्रन्थियां घुल चुकी है, वह फिर किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा गासित हो या न हो, स्वतंत्र है। मी मत्य को भगवान् ने रहस्यात्मक शैली में प्रतिपादित किया था। उन्होंने कहा- अहिार व्यक्ति न पराधीन होता है और न स्वाधीन । वह बाहरी बंधनों में बंधा हुआ नहीं होता, मिलिए पराधीन नहीं होता और वह आत्मानुशानन की मर्यादा ने मुक्त नहीं होता, इसलिए स्वाधीन भी नहीं होता। सामुदायिक जीवन जीने वाला अहिलका व्यक्ति भी व्यवस्था-तंद को मान्यता देता है, किन्तु उसकी अभिमुखता तंव-मुक्ति की बोर होती है। भगवान् महावीर ने एक ऐसे नमाज का प्रतिपादन किया, जिसमें बद्र नहीं। यह ममाज हमारी आंखो के सामने नहीं है, इसलिए हमने महत्व दे पान Farतु उस प्रतिपादन मा अपने आप में गरम है। भगवान ने बताया-लातील देव मिट होने। नीम स्थत । परा गोई मान और शास्ति नही । कोरिया और परमही है. कोई बड़ा और होटा नहीं देगदम्बमामिलामा र और कमलमलिएकामिल।। (मागममा राज्यामि नही
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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