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ज्ञान-गंगा का प्रवाह
ढाई हजार वर्ष पहले का युग श्रुति और स्मृति का युग था । लिपि का प्रचलन बहुत ही कम था । इसलिए उस युग में स्मृति की विशिष्ट पद्धतियां विवामित थी। गंध-रचना की पद्धति भी स्मृति की मुविधा पर आधारित थी। इसी परिस्थिति में मूत्र-गली के ग्रंथों का विकास हुआ, जिनका प्रयोजन था, थोडे में बहुत माह देना।
इन्द्र प्रति आदि गणधरों पर भगवान महावीर के विचार-प्रसार का दायित्व आ गया । अतः भगवान् के आधारभूत तत्त्वों को समझना उनके लिए आवश्याः था। इन्द्रभूति ने विनम्न वंदना कर पूछा-'भंते ! तत्व क्या है ?'
'पदार्थ उत्पन्न होता है।' 'भंते ! पदार्थ उत्पत्तिधर्मा है तो वह लोक में कामे समाएगा?' 'पदापं नष्ट होता है।
"भंते ! पदार्य विनाशधर्मा है तो वह उत्पन्न होगा और नष्ट हो जाएगा, मेप पपा रहेगा?'
'पदापं ध्रुव है।'
'मते ! जो उत्पाद-पय धर्मा है, पह धूप मे होगा? का पाद-पाय मोर पोर विरोधाभाग नहीं ?'