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________________ संविजाग व्रत. अर्थात् घणुंज द नस्यो हर्ष १४६ छादश अतिथिसंवि कृपा करीने फरी अनुग्रह करवो. ए प्रमाणेहमान उत्पन्न थाय. जेम नी हवसुधी ते मुनिश्रेष्ठने पहोचाडवा जाय. राजा पति चालीश्रावे ४ चोथो गुण एके, त्यांथी ते मुनिने वंदना घेर आवी, नोजन करे. पण तेने मनमां हर्ष समार रो मुनिना आगमनरूप लाग्योदय थयो, तेणे करी हारे घरे महा थको विचारे के आज को माहारे नली वात थ गवाज होय होटो को लाल थयो. कारण, जे मुनिराज निस्टही तयार क्यां रहित, गतप्रतिबंधी, सहजउदासी निरीह, एवाने में विनतिन यो धी एटले तरत महारे घेर आव्या. वती में जे आहार आप्यो, त पण सर्व लीधो. वचमां को अंतरायरूप विघ्न न थयु. एथी करी महारो को सारो वखत प्रगट्यो जणायडे, फरी आवो योग क्यारें मले ? अने जो मले, तो जाणुं जे महारे अतुल्य पुण्यनो प्रसाद थयो. एवी अनुमोदना वारंवार करे. ___५ पांचमो गुण, ए जे जेम कोश्मंदनाग्यवान् पुरुष, व्यापार क रतां करतां थोडं कमाय, तेने कोश्क दिवसें एकज शोदामां लद अव्यनी प्राप्ति थाय, त्यारे ते फरी व्यापारनी अनुमोदना केवी चा ही चाहीने करे ? तेवी रीतें एना करतां पण अधिक दाननी चाह ना समकेती जीव राखे. ए पांचे गुणोयें युक्त दान आपई, ते शु अ दान कदेवाय, ए शुकदानथी अतिथिसं विनागवत थाय. ___ अहींयां श्रावके साधुने दोष रहित आहार आपवो, अ ने साधुयें पण दोपरहित आहार लेवो. त्यां दोपनी विचा रणा करतां प्रथम शोल दोष श्रावकथी लागे. अने शोल दोष साधुश्री लागे, तथा दश दोप साधु अने श्रावक वन्नेथकी उपजे, ए प्रकारे वझा मली वेंतालीश दोपनो त्याग करीने सा धु आहार लीये, ते वेतालीश दोपमाथी प्रथम श्रावकथी शो ल दोप लागे, ते लखे ठे.
SR No.010539
Book TitleSamyaktva Mul Bar Vratni Tip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotsagar Gani
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1897
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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