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________________ २८६ भ० महावीर स्मृति-प्रंय। नामपर एक प्राणीके प्राण लेना क्रूरताका कारण है और जिसके लिए दयामय आचरण करनेका उपदेश है तो फिर भला अपने स्मार्थके लिए निर्वाध हिंसा करनेमें उस क्रूरता और अदयाका अन्तु कैसे होगा? सक्षेपमें एक कार्यका जो प्रभाव एक व्यक्तिपर पड़ता है, वह स्पष्ट है | अतः जैनधर्मकी यह प्रगट शिक्षा है कि वह व्यक्ति जो अपने जीवन में दया और प्रेमके सिद्धान्त पर अमल करते हैं, वे दूसरेको प्राणरक्षाका दान देनेकाही आनन्द केवल नहीं उठाते, बल्कि वे सचमुच अपना भला करते हैं-लाभ उठाते हैं । इसके विपरीत जो लोमी, स्वार्थी और क्रूर है-द्वेषपूर्ण व्यवहार फरते है और रक्तपात करके युद्ध मचानेमें खुश होते है, वे न अपनी मलाई करते हैं, और न दूसरोंके मित्र हैं । वे मानवसमाजके सबसे बड़े शत्रु हैं । इस प्रकार यह प्रेमका-अहिंसाका सिद्धान्त है। यदि इसपर अमल करें तो मानव परमात्म-पद की महानता को पावें ! यदि वे इसकी उपेक्षा करें तो बाइबिलका' यह शाप उनके लिये ही है कि 'तेरे भारसे यह जमीन दूषित है । ' (Cursed is ground for thy sake) अतः यदि मानब अपनी भलाई चाहता है तो वह सब मानवों और इतर प्राणियोंकी यथाशक्ति भलाई करे। केवल इस कारण--अहिंसाके अनुयायी होकरही -आपके मनमें, घरमें, कौममें और दुनिया, शान्ति होगी ! भाया है "हिंसा परमो धर्मः " में गर्भित सुनहरा सन्देश संसारके समस्त प्राणियोंके हृदयोंको प्रकाशमान और प्रफुलित करेगा! इसीसे लोकमें शान्तिका साम्राज्य स्थापित होगा। अतएव आहेसा सिद्धान्तको सदैव प्रकाशित कीजिये । अहिंसाही अशान्तिको मेंटनेकी परम शक्ति है । हे मुक्तिदूत ! उस दिन भूतल पर स्वर्णिम रत्नोंकी वर्षा हो रही थी, मानव चकित लोचनासे यह सब निरख रहा था, और नव उसने वर्षाका कारण नाना तो वह खुले हाथों उल्लास लुटाने लग गया, देवताओंको वाँछे खिल गयीं और प्रकृति अपना शृङ्गार सजा कर स्वागत करनेके लिए अपलक नयनोंसे तुम्हारी बाट जोहने लगी, तमी हे धर्मप्राण!-- तुमने अपने पद-पड्वजों द्वारा वसधाको पावन करते हुए सम्पूर्ण संसार, धर्मकी महत्ताका शखनाद कर, सत्य और अहिंसा के पावन उपदेशे द्वारा प्राणीमात्रको जगा दिया। मानव उठा, सहसा अपने समक्ष दिन्य-ज्योतिको देख उसके नेत्र टिक न सके, अरे, टिकतेमी कैसे ? जब इन्द्रने आपकी शशि-मुखको सुधाका पान करनेके लिए सहस्र लोचन बनाए तो वह एक मानव, निरीह मानव जिसने तबसे पहले कमी आपकी दिन्य आत्माका दर्शन नहीं किया, कैसे आपका मुखडा देखता, वह तो पापी था, हिंसक या, निरा हिंसक । अरे, वह तुम्ही तो थे, जिसने इसके सब पापोंको क्षमा करने हुए उसे सद्उपदेश दिए और अहिंसाफा पाठ पढ़ा मोझका मार्ग सुझाया । अतः हे मुक्ति दूत!-- 'तर जग पर शांति, अहिंसाके अधिनायक ! सुम प्राण फिर जाग उठे, हे, शांवि विधायक !!" सश्रद्धा-नरेशचन्द्र जैन 'हेम
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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